शनिवार, 13 अगस्त 2011

कम्पनियां मालामाल और सरकारें बदहाल।

इटली के पचास हजार लोग निकट भविष्य में अपनी नौकरियां खो देगें। इन नीतियों का प्रस्ताव वहॉ की निर्वाचित सरकार की ओर से आया है। जनसंख्या के अनुपात में यह शायद उनके लिए नाकाबिले बर्दाश्त झटका हो सकता है। फिलहाल तो यह दर्शाता है कि अधिकांश देशों की सरकारी नीतियों में आजकल एक रहस्यमय समानता आ गयी है। जो सरकारें कर्ज संकट में हैं उन्हें आगे काम चलाने के लिए पैसा चाहिए। कर्ज देने वाली संस्थाओं की शर्त है कि सरकारी खर्च को कम करो, तभी कर्ज मिलेगा। मतलब साफ है कि सरकारों को अब अपनी सामाजिक भूमिका समाप्त करनी होगी ,वे अब स्कूल नहीं खोल सकती अस्पताल नहीं चला सकती, खेल संस्थाओं पर अब उनकी कोई भूमिका नहीं होगी ,जितने भी लोक कल्याणकारी दायित्व सरकारों के निश्चित थे ,अब सरकारें इन वायदों से पीछे हटने लगी हैं ।ऐसे में यह सवाल उठ सकता है कि जब सरकारों को कुछ करना ही नहीं है तो फिर इनकी भूमिका क्या बचेगी ? सरकार जनता के कामों को बोझ बता रही है, क्या वास्तव में सरकारें जनता के लिए बोझ साबित नहीं हो रही हैं? फिलहाल तो सरकारों का काम इतना भर रह गया है कि है कि लोगों से टैक्स वसूलें और राष्ट्रीयं दिवसों पर देश के झंडे के नीचे खडे होकर पुलिस और फौज की सलामी लें।
 दुनियां भर में जो सरकारें आर्थिक संकट में हैं वे यह नहीं बताती है कि देश कर्ज में क्यों फॅस गया ? सरकारें अन्त तक इन संकटों पर चुप्पी क्यों साधे रहती है ? जिन कारणों से यह स्थिति आती है उसके लिए जिम्मेदार कौन है सरकार या जनता ? कोई भी सरकार ऐसी नहीं है जिसने एक प्रकार से देश की सम्प्रभुता को गिरवी रखकर कर्ज लेने से पहले अपने लोगों के बीच जनमत संग्रह कराया हो कि आगे की नीतियां तय कैसे की जांए? यह सारा काम सरकार और विपक्ष में बैठे पेशेवर राजनीतिज्ञ आपस में मिल बैठ कर तय कर लेते हैं और अपने निर्णय की घोषणा कर देते हैं। यह रूझान इसलिए भी खतरनाक है कि जिसे जनता अपनी निर्वाचित सम्प्रभु सरकार माने बैठी है। उसके हाथों में तो अब कुछ रह ही नहीं गया है। सारी दुनियां ने देखा कि पाकिस्तान में दो स्थानीय नागरिकों की खुलेआम हत्या करने वाले अमेरिकी को इस सरकार ने कैसे छोड दिया और खुलेआम पाकिस्तान में अमेरिका सैन्य आपरेशन कर लेता है और आर्थिक रूप से अमेरिका पर निर्भर सरकार औपचारिक विरोध तक ही सीमित रह जाती है । लेकिन अपने नागरिको के किसी भी प्रदर्शन का जवाब गोलियों से देने में जरा भी नहीं हिचकिचाती हैं, यह मात्र उदाहरण ही हैं कमोवेश सरकारों का यही चरित्र रह गया है फिर सवाल उठता है कि ऐसी सरकारों की जरूरत कितनी रह जाती है।
 हमारे देश में भी यही नीतियां बहुत पहले से ही लागू की जा चुकी हैं । और वे  कारण अभी तक मौजूद हैं जिनके कारण देश का सोना गिरवी रखने तक की नौबत आ गयी थी। सवाल यह नहीं है कि कौन या वर्ग मुनाफा बटोरने में लगा है और कौन भूखा है। भूख,लाचारी,बेबसी और आत्महीनता हमारे देश में क्यों पसरते जा रही है? एक व्यक्ति अपने रहने के लिए एक अरब डालर की लागत का मकान बनाता है और देश को कर्ज के लिए के कर्जदायी संस्थाओं के सामने रिरियाना पडता हैै। कर्ज पाने के लिए अमेरिकी सदन में हफ्तों बहस चलती है और अमेरिकी एपल कम्पनी की तिजोरी में देश की कुल नगद धनराशी  से अधिक के नोट ठुंसे रहते हैं ! इस पहेली का जवाब ना जाने किसके पास होगा! 



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