सोमवार, 15 अगस्त 2011

भ्रष्टाचार विरोध से सरकार क्यों चिढ जाती है?

अन्ना के आंदोलन से सरकार बेवजह ही तिलमिलाई हुई है। जबकि सरकार से अन्ना का  कोई विरोध है ही नहीं ,विरोध तो भ्रष्टाचार से है।  भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना भी हैं और सरकार भी इसके खिलाफ बयान देती ही रहती है फिर सरकार इस आंदोलन के खिलाफ क्यों होती जा रही है यह किसी को समझ में नहीं आ रहा है। भ्रष्टाचार के खिलाफ अन्ना लोगों को सक्रिय कर रहे है। इससे सरकार परेशान क्यों है ?सरकार भी यह कहती है कि  भ्रष्टाचार इस देश में एक बडी समस्या है। लेकिन जब भी सरकारों पर कोई संकट आता है चाहे वह नरसिंहाराव के समय में झामुमो सांसदों का मामला हो या यूपीए के प्रथम कार्यकाल में बामपंथियों के समर्थन वापस लेने से उपजा संकट हो ,या फिर कर्नाटक में जैसा भाजपा के साथ हुआ ऐसे समय में भ्रष्टाचार करके ही ये सत्ताधिकारियों बच सके हैं ,ऐसे में जनता इनकी गद्दी बचाने में सहयोग नहीं करती है सिर्फ भ्रष्टाचार के जरिए इकठ्ठा किये हुए धन से ही ये  लोग खरीद फरोख्त कर पाते हैं। जो भ्रष्टाचार इन्हें संकट से बचाता है उसे बचाना न सिर्फ इनका नैतिक कर्तव्य है बल्कि इनके अस्तित्व के लिए भी जरूरी है।घाघ मंत्री तो कभी फॅसते ही नहीं है लेकिन कभी कभार कोई नौसिखिया मंत्री किसी घोटाले में फॅस ही जाता है तो भ्रष्टाचार करके ही ये बच भी पाते हैं । शायद इसलिए ही सरकार भ्रष्टाचार के खिलाफ बयान तक तो लोगों के साथ है लेकिन कोई अन्ना यदि इससे आगे बढने की कोशिश करे तो इसे व्यवस्था के खिलाफ बगावत माना जाएगा। आखिर जिस भ्रष्टाचार के सहारे सरकारें चलती हैं व्यवस्था चलती है। उस पर ऑच कैसे आने दी जा सकती है सरकार इसके खिलाफ बयान दे रही है इतने से ही लोगों को संतुंष्ट हो जाना चाहिए।
 2 जी प्रकरण में कोई घोटाला हुआ ही नहीं है यह दावा करने वाले कपिल सिब्बल कह रहे हैं कि अन्ना को आंदोलन करने का लोकतांत्रिक अधिकार तो है लेकिन हम सुविधानुसार जगह नहीं दे सकते हैं। इस आंदोलन के बाद जगह तो सिब्बल जी को अपने लिए ढूंढनी ही पडेगी। दूसरों को जगह देने या न देने का इतना अहंकार लोकतंत्र में कैसे टिका रह सकेंगा ? जब मिश्र जैसे देशों में यह अहंकार वहॉ के शासकों को नहीं बचा पाया । इस तरह के लोग बहुत ही चालाक होते हैं जो अपने खिलाफ किसी भी विरोध को लोकतांत्रिक व्यवस्था के विरोध का नाम दे देते है। संसद की अवमानना, विधायिका के कामों में हस्तक्षेप संसद के बाहर कानून बनाने की कोशिश करना और ससंद को नियन्त्रित करना जैसे शब्द किसी को भी सनसनीखेज लग सकते हैं । लेकिन ध्यान देने की बात यह है कि यह वे लोग कह रहे हैं जिनके लोकतंत्र की अपनी मनगढंत परिभाषा है। अपनी गद्दी बचाने के लिए लोकतंत्र की दुहाई देना भी कम भ्रष्टाचार नहीं है। यदि लोकतांत्रिक मूल्यों का इन्होनें जरा भी मान रखा होता तो आज देश चौराहे पर खडा न होता। किसी तरह अपने कार्यकाल के पॉच साल पूरे कर लेने और फिर चुनाव जीत लेने को देश चलाना कैसे कहा जा सकता है ? लोगों को बेवकूफ बनाना जरूर कहा जा सकता है।






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