रविवार, 21 अगस्त 2011

मनमोहन का खत्म होता सम्मोहन!


1990 के दशक में मनमोहन सिंह नई आर्थिक नीतियों के पुरोधा थे, रातोंरात देश में इनके नेतृत्व में नया आार्थिक मॉडल थोप दिया गया। हांलाकि लोगों का पुराने आर्थिक ढांचे से सम्मोहन टूट भी रहा था, क्योंकि सोवियत संघ के माडल से प्रेरित हमारी अर्थव्यवस्था संघ के बिखरने के साथ ही अपनी आन्तरिक कठिनाईयों से भी गुजर रही थी, लेकिन अर्थशास्त्री होने की छवि का लाभ उठाकर मनमोहन सिंह ने ईमानदार होने और कुटिल राजनीतिज्ञ न होने की छवि का भरपूर लाभ उठाया, कालान्तर में ये कितने ईमानदार ओर निष्कपट नेता रहे इसका फैसला तो इतिहास करेगा लेकिन उन्होने जितनी निर्ममता से अपनी मनोगत सोच के आधार पर इस देश में नीतियां लागू की उसके आधार पर इस आरोप में भी काफी दम है कि इतना बेरहम कोई निर्मम तानाशाह ही हो सकता है। लोकतंत्र में इस तरह से नीतियां आरोपित करना लोकतंत्र के एकदम विपरीत है।
मनमोहन सिंह ने एक वित्त मंत्री और फिर प्रधानमंत्री के रूप में जो चाहा वह किया। शुरूआत में कुछ स्वदेशी आंदोलन टाईप के विरोध के बाद लगभग पूरा विपक्ष मनमोहन सिंह की ही धुन पर ही थिरकने लगा, इसी कारण हमारे देश में विपक्ष और सत्ता में कोर्इ्र भी विरोध नहीं रह गया है, क्योंकि आज भी तथाकथित विपक्ष के पास कोई समानान्तर अथवा नेतृत्व दे सकने लायक विचार नहीं है।सत्ता में कोई भी आये नीतिंया यही लागू होंगी। विचार के ऐसे दिवालियापन में लोकतंत्र कैसे चल सकता है? शायद यही कारण है कि हमारी लोकतांत्रिक व्यवस्था में लगभग सभी पार्टिंयां कॉरपोरेट घरानों में तब्दील होती जा रही है। जिस तरह पूॅजीपति साल भर मजदूरों का निर्मम शोषण करके दिवाली में कुछ रूपये का बोनस दे देता है उसी तरह लगभग सभी राजनीतिक पार्टियां चुनावों में लोेगों को लालच देती हैं साडी ,टेलीविजन से लेकर स्कूल में बच्चों को भोजन,2 रू0 किलो आटा ,चावल देने की धोषणा इनकी पूरी सोच दर्शाती है। सरकार आज भी उसी मानसिकता से संचालित लगती है कि जैसे यहॉ महारानी का शासन हो यदि आपने इनको खुश किया तो ये आपको कुछ खैरात दे देगंे। खुलेआम सरकार के प्रवक्ता कहते हैं कि हमने दिल्ली से इतना पैसा भिजवाया, यह समझ से बाहर है कि किसी राज्य को पैसा भिजवाने में इनका क्या एहसान है?एक-एक पैसा पूरे राष्ट्र की सम्पत्ति है जहॉ आवश्यकता होगी उस पैसे को वहॉ जाना ही चाहिए, इसमें श्रेय लेने अथवा ऐहसान जतलाने से जाहिर होता है कि ये चाहेगें तो पैसा नहीं भी दे सकते हैं!यही हाल राज्य सरकारें अपने अधीन संस्थानों के साथ खुलेआम करती है।
ऐसे में कहा जा सकता है कि लोगों का अन्ना के साथ होने में महत्वपूर्ण तथ्य यह भी है कि लोग मनमोहन सिंह के विरोध में हैं।


कोई टिप्पणी नहीं: