रविवार, 28 अगस्त 2011

अन्ना के धोबीपाट से दोनों ही चित हैं।

         रामलीला मैदान से अन्ना द्वारा संचालित अंादोलन ने एक पडाव तय कर लिया है । बहुत  ना नुकुर के बाद संसद को आखिरकार सिविल सोसायटी की बात को सुनना ही पडा , किन्तु-परन्तु करती सरकार को अन्त तक विपक्ष से कल्पनातीत सहयोग मिला । इतना सहयोग कि इस मुद्दे पर संसद में सत्ता और विपक्ष का जैसे कि कोई अन्तर ही नहीं रह गया था। लेकिन लगातार बढते जनदबाव के बाद सरकार के पास और कोई रास्ता नहीं बचा था कि वह प्रतीकात्मक रूप से ही सही अन्ना की बातों पर ध्यान दे ,और ऐसा करके फिलहाल अपने उपर आयी एक मुसीबत को टालकर  सरकार राहत महसूस कर रही है। यह राहत कितने दिनों के लिए है यह कहना कठिन है। 
                अन्ना के मुद्दों से कितने लोग सहमत हैं कितने नहीं ,आज यह सवाल बहुत महत्वपूर्ण नहीं रह गया है। महत्वपूर्ण यह है कि अन्ना के आंदोलन ने  लोगों को एक सूत्र में कैसे पिरोया बिना झिझक लोग साथ आते गये और कारवंा बनता गया लोगों के पास किसी संगठन का नाम नहीं था न ही किसी दल का झंडा हाथ में था ,संगठनों की सीमा को ही लोगों ने नकार दिया है। कोई नया नारा नहीं,कोई नया झंडा नहीं और कोई नया संगठन नहीं, लगभग चलन से बाहर हो चुकी गॉधी टोपी और राष्ट्रीय ध्वज को इस आंदोलन ने इतनी प्रतिष्ठा दिला दी है कि अब क्रिकेट मैदान में राष्ट्रीय ध्वज लहराने वाले और गॉधी टोपी पहनने वाले नेताओं को थोडी असहजता जरूर होगी। इस पूरे आंदोलन में हिंसा का कहीं भी नामोनिशान नहीं था न नेताओं की भाव भंगिमा में और न ही कार्यकर्ताओं के तेवर में।
                 कहने को यह पूरा आंदोलन वर्तमान शासन प्रणाली में व्याप्त भ्रष्टाचार के खिलाफ है। लेकिन इस अंादोलन का शिकार दोनों ही किस्म के लोग हुए है, लोगों का यह विद्रोह दो-तरफा है , विद्रोह का एक स्वर तो इस शासन व्यवस्था के खिलाफ है ही ,दूसरा स्वर उन कथित क्रान्तिकारियों के खिलाफ भी है जो व्यवस्था परिवर्तन के नाम पर आंदोलन चलाते रहे हैं और जनसंगठन बनाते रहे हैं, हकीकत में ये केवल लोगों को बॉटते रहे , ये कथित जनसंगठन उन्हीं विकारों से ग्रस्त है जैसे कि  यह संसदीय व्यवस्था हो गयी है। लोग व्यवस्थागत मुसीबतों के कारण तो अनेकों कष्ट भुगत ही रहे हैं लेकिन कथित क्रान्तिकारियों के कारण भी लोगों ने कम कष्ट नहीं भोगे हैं । अन्ना के नेतृत्व में लोगों ने इन दोनों ही प्रवृत्तियों के खिलाफ अपनी प्रतिक्रिया व्यक्त की है। इसी कारण अन्ना आंदोलन के विरोध में संसदीय तंत्र तो था ही , लेकिन वे लोग भी बडी संख्या में इस आंदोलन के खिलाफ सक्रिय रहे जिन्हें यह गुमान है कि जनआंदोलन के लिए लोगों को हमारी ही शरण में आना होगा, क्योंकि जनसंगठन की धारणा हमारे पास ही है,लेकिन यह सब धरा रह गया। वास्तव में जिस तरह लोकतंत्र पर गलत लोग हावी हो चुके हैं उसी तरह जनसंगठनों को भी षडयन्त्रकारियों और महत्वाकांक्षियों ने बरबाद कर दिया है। फिलहाल अन्ना के इस नये प्रयोग में मिली सफलता ये उत्साहित लोग जश्न मना रहे हैं। भविष्य में इससे कुछ सबक भी जरूर लेगें।

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