सोमवार, 29 अगस्त 2011

भ्रष्टाचार कोई चोर नहीं है कि लोकपाल से डर जाएगा।

अन्ना आंदोलन को कुछ लोग जीत हार के आईने में देखने की कोशिश कर रहे है। ,लेकिन इससे यह लगता है कि इस आंदोलन ने किसी को हराया भी है। जबकि  आंदोलन यदि सुखान्त तक पहुॅचा  तो इसका थोडा बहुत श्रेय आंदोलन के प्रतिपक्ष को भी जाता है।  संसद ने अन्त में  परम्पराओं से  हटकर इस खतरे के बावजूद आंदोलन को एकमत से अपना समर्थन दिया कि ऐसा करने से परम्परावादियों और यथास्थितिवादियों के बीच यह संदेश जा सकता है कि सरकार ने घुटने टेक रही है ,जैसा कि स्वामी अग्निवेश की वीडियो से जाहिर भी हो रहा है।  हिचकिचाहट के बाद ही सही संसद ने आंदोलन के पक्ष में संाकेतिक रूप से प्रस्ताव पारित किया तो इस योगदान का भी महत्व है। अन्यथा सत्ता मद में चूर लोगों का कोई भी गलत निर्णय भयानक तबाही का कारण बन सकता था, ऐसी स्थिति को टाला गया   इससे संसद पर लोगों के क्षरित होते जा रहे विश्वास में थोडा सा विराम भी लगा है। लोगों को संसद से कोई नाराजगी नहीं है, नाराजगी इस बात से है कि बेईमान ,भ्रष्ट और अपराधी मानसिकता के लोग संसद पर हावी होते जा रहे हैं यदि इस अर्न्तद्वन्द में संसद के भीतर  सकारात्मक सोच वाले लोगों की जीत हुई है तो इसका भी अपना महत्व है इसके बिना आंदोलन की सफलता  थोडी और दूर जा सकती थी। विनम्र आंदोलनों का यह भी गुण होता है कि वे किसी के भी छोटे से छोटे योगदान को भूलते नहीं है।
     इस आंदोलन से लोग अलग-अलग निष्कर्ष निकाल रहे हैं और अपने-अपने तरीके से  और इसका विष्लेषण करेंगें लेकिन इतना तय है कि इस सफलता के बावजूद भ्रष्टाचार को रोकना फिलहाल सम्भव नहीं है, क्योंकि यह मानसिकता क्या है और क्यों फैल रही है ?जब तक यह स्पष्ट नहीं किया जाता है तब तक कोई भी उपचार कारगर नहीं हो सकता है।भ्रष्टाचार कोई कानून व्यवस्था की समस्या नहीं है कि आपने लोकपाल के रूप में एक पुलिस कमिश्नर की नियुक्ति कर दी और भ्रष्टाचार पर अंकुश लग गया।  भ्रष्टाचार का मतलब भ्रष्ट लोगों के आचरण से है। यह आचरण केवल पैसों की लूट और घोटालों तक ही सीमित नहीं है, भ्रष्ट मानसिकता कैसे कदम-कदम पर लोगों को अपमानित भी करती है, इसे कोई भी लोकपाल पकड नहीं सकते हैं। भ्रष्ट लोग जब तक रहेगें तब तक उनके आचरण का दंश लोगों को आहत करता ही रहेगा।  भ्रष्ट लोगों के आचरण को रोकना असम्भव है ,भ्रष्ट लोगों को ही हतोत्साहित करना होगा और रोकना होगा ताकि वे चुनाव के जरिए राजनीति में न आ सके, मंदिर मस्जिदों के पुरोहित न बन जाए,डाक्टर, अध्यापक पुलिस और न्यायपालिका जैसा पेशे में न आ सकें। आज हालत यह है कि जिसको भी पैसा कमाने की चाहत है और लोगों को दुखी करने में आनन्दित होने की बीमारी है वह किसी भी तरह से राजनीति में आ जाता है, जिनकी हिम्मत इससे थोडा कम है वे डाक्टर, अध्यापक  पुलिस और न्यायपालिका जैसे पेशों को अपना लेते हैं । इनको रोका ही नहीं जा सकता है। जब तक संवेदनशील पदों पर नियुक्ति के लिए लोगों की मनोवैज्ञानिक जॉच नहीं करायी जाती है कि वे इन पेशों में अपनी कुंठा तृप्त करने तो नहीं आ रहे हैं?तब तक बहुत उम्मीद नहीं है। समय-समय पर सत्ता से जुडे लोगों की मनोवैज्ञानिक जॉच भी होते रहनी चाहिए।


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