रविवार, 21 अगस्त 2011

चौसर के खिलाडी और अन्ना।

सरकार और विपक्ष की ओर से अन्ना और उनके समर्थकों को लगातार ससंद के सर्वोच्च होने की याद दिलाई जा रही है। और कहा जा रहा है कि यदि हिम्मत है तो चुनाव जीत कर दिखाओ। यह सत्य है कि सरकार और विपक्ष में बैठे हुए लोग चुने हुए प्रतिनिधि हैं। लेकिन हमारे यहॉ चुनाव अब दुर्योधन के चौसर का खेल होता जा रहा है। इसमें बाजी शकुनी ही जीतेगें, अन्ना जैसे लोगों की इसमें कोई जगह नहीं रह गयी है, इस तथ्य को चुनाव के बाजीगर अच्छी तरह जानते हैं। चुनाव शब्द अपने आप में बहुत ही  आकर्षक है,लोकतंत्र भी लुभावना शब्द है, और ससंद शब्द जनता की राय का इतना सटीक प्रतिनिधित्व करता है कि इसकी शान में कहीं भूल से भी गुस्ताखी ना हो जाए इसलिए लोग संसद शब्द का तक सम्मान करते हैं,बावजूद इसके कि संसद के नाम पर ही ये लोग गोलमाल कर गुजरते हैं ।लेकिन सवाल यह है कि चुनाव में जनता का प्रतिनिधित्व कैसे हो रहा है ? कुल मतदान लगभग 50 प्रतिशत का होता है उसमें चार-छः दलों के उम्मीदवार जाति,सम्प्रदाय,बाहुबल,धनबल, सिंपैथी और बोट काटने और बोट जोडने का गणित ,इसमें जो माहिर होगा वही अपने को चुनवा लेगा इसके बाद चुने जाने की सम्भावना ही कहॉ रह जाती है ? और जीतने के बाद भी वह विजेता किसकी गोद में न बैठ जाए यह कहना बहुत जोखिम भरा काम है।
      ऐसे ही तमाम प्रपंचों का शिकार हमारा लोकतंत्र होता जा रहा है, जो लोग चुनाव में गर्दन ही नहीं कमर तक झुके रहते हैं चुने जाते ही वे इतने अहंकार से भर जाते हैं कि खुद को ही सर्वोच्च मानने लगते हैं इनकी चिंता न तो लोकतंत्र को लेकर है और ना ही ससंद की गरिमा से इनको कुछ भी लेना-देना है। ये केवल अपनी सर्वोच्चता साबित करना चाहते है। यह सवाल उठाया जा सकता है कि ये कैसे प्रतिनिधि हैं जिनको ये भी पता नहीं कि जनता कितनी मुसीबतों में है। और जिसके धैर्य का बॉध अब टूटने के ही कगार पर है। लेकिन ये लोग शायद स तरह नहीं सोचते हैं इन्हें लगता है कि ये पॉच वर्षों के लिए तानाशाह बना दिये गये है।
      अन्ना का आंदोलन चाहे जिस मुद्दे से भी शुरू हुआ हो अब यह जनता की सर्वोच्चता फिर से साबित करने की ओर बढ रहा है। न्याय का अनादर नहीं किया जा सकता है वह सर्वोच्च है इस तर्क के बहाने बहुत से कथित न्यायाधीशों ने भ्रष्टाचार और मनमानियां की जो भ्रष्टाचार करे ,मनमानी करे वह न्यायाधीश कहलाने योग्य ही नहीं है, अदालत की अवमानना का खौफ दिखाकर कुछ जजों ने कुछ दिन अपनी मनमानी चला ली लेकिन यह साबित हो गया कि ऐसे लोगों को न्याय की सत्ता से कुछ भी लेना-देना नहीं था। केवल उसकी महत्ता की ओट में अपनी सत्ता का प्रदर्शन करना था। आज जो लोग लोकतंत्र,चुनाव और संसद की इुहाई इे रहे हैं । इन्हें भविष्य में इन शब्दों की गरिमा को चोट पहुॅचाने के लिए जवाब देना पडेगा, इनकी बातों का कोई जवाब देने के लिए अन्ना बाध्य नहीं है। लेकिन यह तय है कि आज भी चुनावों में इन नेताओं को टक्कर देने की हिम्मत किसी में भी नहीं है, चौसर के खेल में तो शकुनी ही जीतेगा युधिष्ठिर कैसे जीत सकतंे हैं ?

कोई टिप्पणी नहीं: