शनिवार, 10 दिसंबर 2011

लोकपाल, भ्रष्टाचार मिटा देगें?

भ्रष्टाचार के खिलाफ जनमत बनाने में अन्ना की पहल को कम करके नहीं आंका जा सकता है। अन्ना ने इस समस्या को पूरी गम्भीरता से उठाया, और लोगों ने इस आंदोलन को अपना भरपूर सहयोग और समर्थन भी दिया ,लेकिन भ्रष्टाचार के खिलाफ असंतोष को जिस तरह लोकपाल पर ही केन्द्रित किया जा रहा है ,उससे लगता है कि भ्रष्टाचार और उससे जुडे सभी सवाल अब पीछे छूटते जा रहे हैं तथा लोकपाल विधेयक अब सरकार और अन्ना के बीच जोर आजमाईस का मुद्दा बनता जा रहा है। यह सवाल पूछा जाने लगा है कि आंदोलन के नाम पर सरकार को नियन्त्रित करते हुए दिखना कहॉ तक ठीक है? सरकार आंदोलनकारियों की तरह नहीं सोच सकती है यह उसकी सीमा है और आंदोलनकारी सरकार की तरह नहीं सोच सकते है यह इनकी व्यापकता है। इसी कारण भ्रष्टाचार से निबटने के लिए एक जैसी समझ विकसित करना नामुमकिन है। सरकार जो चाहे वह करे, उसे नियन्त्रित करने का प्रयास दूसरी समस्याओं का कारण बन सकता है। अन्यथा यह पूरा आंदोलन तू तू-मैं मैं तक ही सीमित हो जाएगा, कभी केजरीवाल और किरण बेदी खुद ही भ्रष्टाचारी साबित हो जाते हैं और प्रतिक्रिया में केजरीवाल ,हिसार में कांग्रेस को हराने का बीडा उठा लेते है। यह स्पष्ट रूप से आंदोलन में गिरावट का संकेत है। आंदोलन से यह अपेक्षा है कि वह लोगों के सामने अपना दृष्टिकोण स्पष्ट करे । भ्र्रष्टाचार के प्रति आंदोलनकारियों की समझ क्या है, इसे व्यक्तिगत दुर्गुण माना जाए या फिर यह विकार ,व्यवस्था में ही निहित है। जो भ्रष्टाचारी पकड में आ जाए उसको ही दण्डित करके संतुष्ट हो लिया जाए या फिर लोग भ्रष्टाचार मुक्त समाज और राजनीति का ऐसा कोई मॉडल लोगों के समक्ष रख जाए जिसमें लोग भ्रष्टाचार के प्रति उत्सुक ही न हों।ऐसे ही तमाम सवालों से गुजर कर ही यह आंदोलन परिपक्व हो सकेगा, इनसे बचकर नहीं। लोकपाल के ताकतवर होने से भ्रष्टाचार के समाप्त होने का कोई भी सम्बन्ध नहीं हैं। क्योंकि भ्रष्टाचार बहुत से लोगों के दिल ,दिमाग में ही नहीं आत्मा तक में पसर गया है,विशेषकर प्रभावशाली वर्ग में। ऐसे में लोकपाल गठन का केवल तात्कालिक महत्व है, यह कोई स्थाई समाधान नहीं है।एक बडे जनआंदोलन की सम्भावना को सशक्त लोकपाल की मांग तक ही सीमित करने के बहुत नुकसानदेह परिणाम होगें।यह प्रश्न महत्वपूर्ण है कि क्या सशक्त लोकपाल के बिना नेता ईमानदार नहीं हो सकते हैं? दरअसल इस सशक्त लोकपाल की पूरी अवधारणा एक काल्पनिक ताकतवर दरोगा जैसी ही है, लगभग दबंग जैसी ही। नेताओं को लोकपाल से नियन्त्रित करने की कोशिश, अन्ततः इनके बीच आपसी समझदारी विकसित कर देगी ,केवल इतने से ही इस पूरे आंदोलन पर पानी फिर सकता है।

कोई टिप्पणी नहीं: