बुधवार, 14 दिसंबर 2011

दिल बहलाने भर को ही अच्छा है ,लोकपाल का खयाल।





आखिरकार लोकपाल पर सहमति बनती नजर आ रही है ,इस मुद्दे पर अब केवल किन्तु-परन्तु ही बाकी रह गयी है ,सैद्धान्तिक रूप से सभी एकमत हैं कि जनप्रतिनिधियों के उपर लोकपाल की तत्काल जरूरत है। लेकिन इससे यह भी साबित होता है कि जनप्रतिनिधियों पर अब लोगों का भरोसा नहीं रह गया है, इसलिए लोकपाल की निगरानी जरूरी है। जनप्रतिनिधियों में ईमानदारी कायम नहीं रह सकी तो वह लोकपाल में कैसे बनी रह सकेगी? यह सवाल अभी तक अनुत्तरित है, यदि लोकपाल के हाथ में ही सत्ता को नियन्त्रित करने की ताकत हो जाएगी तो नेता खुद ही लोकपाल बनने को उत्सुक क्यों नहीं होगें?ं क्योंकि सारा खेल ही सत्ता और शक्ति के लिए है। जिनके हाथों में देश की सत्ता सौंपी गयी है उन पर ही लोगों को अविश्वास हो ,तो कहा जा सकता है कि लोकपाल पर विश्वास करने का कोई आधार नहीं है केवल सद्इच्छा है। फिर लोकपाल के उपर भी कोई और लोकपाल होना चाहिए और फिर उसके उपर कोई और ,यह प्रक्रिया कहॉ तक खींची जा सकती है इसका अनुमान लगाना कठिन है।यह चिंता का विषय तो है ,लेकिन इसे ठीक करने के नाम पर जो तरीके सुझाये और अपनाये जा रहे हैं ,जो उपाय किये जा रहे हैं वे खतरनाक है।
भ्रष्टाचार के आरोप न्यायाधीशों पर भी बहुतायत में लगने लगे हैं इन समस्या के समाधान के लिए न्यायपालिका जवाबदेही विधेयक की तैयारी चल रही है, यह मान लिया गया है कि न्यायाधीश भी अंसदिग्ध नहीं हैं । ऐसे में एक विधेयक से अदालतों पर लोगों का विश्वास बनाने की कोशिश करना इस बात की ओर इशारा करता है कि समस्या को ठीक से समझा ही नहीं जा रहा है । नेता,न्यायाधीश ,अधिवक्ता,चिकित्सक एक ढांचे में सही तरीके से काम कर सकते हैं लेकिन जरूरी नहीं कि ये लोगों का भरोसा भी हासिल कर सकें। आज संकट भरोसे का है । कहने को तो जनप्रतिनिधि लोगों का ही प्रतिनिधित्व करते हैं ,लेकिन लोग इन पर भरोसा नहीं कर पाते है। क्योंकि ये लोग वास्तव में राजनीतिक संगठनों का प्रतिनिधित्व करते हैं जनता का नहीं,। इनका नजरिया और प्राथमिकतायें कहीं से भी लोगों से मेल नहीं खाता है। आज पूरी निर्वाचन प्रक्रिया पर राजनीतिज्ञों का नियन्त्रण है। ये लोग इस खेल के इतने महारथी हो गये है कि वे अपराधियों तक को जनप्रतिनिधि का तमगा लगाकर संसद में पहुॅचा देते है।इनको लोगों से निर्वाचित करवा लेते हैं, यही इनका खेल है। और यही लोगों के इन पर अविश्वास का भी कारण है। चुनावी मैदान में इन दलों की हैसियत अब कॉरपोरेट घरानों जैसी हो गयी है ,छात्र संघ के चुनावों से लेकर ग्राम सभा, लोकसभा और राज्य सभा में कौन चुना जाए कौन नहीं इस पर राजनीतिक दलों की मनमानी है और लगभग एकाधिकार जैसा है। जनता चाहे किसी को भी वोट दे नतीजा कमोवेश वही निकलेगा जैसा कि राजनीतिज्ञ चाहते है। इसी कारण लोग इन पर भरोसा ही नहीं करते बल्कि अविश्वास भी करते है, और यदा-कदा नफरत भी प्रगट करते हैं। इतना तय है कि जनप्रतिनिधियों पर अविश्वास अब व्यक्तिगत सोच या नजरिया नहीं रह गया है। यह अब सामाजिक और राजनीतिक रूप से स्वीकृत मान्यता है, कि इन पर भरोसा नहीं किया जा सकता है। कहना न होगा कि लोकपाल का यह भरम थोडे ही दिन चल पायेगा क्योंकि यह तर्क अभी और आगे जाऐगा कि लोकपाल के उपर भी कोई नियन्त्रण होना चाहिए । यह बात बढती ही जाएगी और हर बार समस्या विकराल होती ही जाएगी। इसमें कोई सन्देह नहीं है। यह नहीं हो सकता है कि लोकपाल उन सब विकारों से मुक्त रहेगें जिनसे हमारी सभी लोकतांत्रिक संस्थायें ग्रस्त हैं और अपनी विश्वसनीयता खोती जा रही हैं । कहा जाता है कि सीजर की पत्नी पर सन्देह से परे होती है। लेकिन हमारे यहॉ कोई भी ऐसा नहीं है जो सन्देह से परे हो अविश्वास के इस माहौल में नई लोकपाल व्यवस्था कैसे लोगों का विश्वास लौटा पायेगी, कहना कठिन है।


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