रविवार, 2 जुलाई 2017

अखलाक और नारंग पर बोलने का मजा है, लाश पर बोलना कठिन है।

एक बार किसी रेडियो कार्यक्रम में किरण बेदी ने कहा था कि ”अपराधी को मौत की सजा ज्यादा मानवीय ढंग से देनी चाहिए” मौत की सजा मानवीय भी हो सकती है यह तो किरण बेदी ही समझा सकती हैं। भीड द्वारा इन दिनों सडको और घरों में घुसकर की जा रही हत्यायें भी इसी तरह का मुद्दा बनती जा रही है।  हत्याओं पर लगभग सभी एकमत हैं कि ये तो होती ही रहती हैं एतराज सिर्फ भीड को लेकर है। वह भीड हिन्दुओं की है या मुसलमानों की असल बहस और दिलचस्पी इसी के इर्द-गिर्द है। इन  हत्याओं पर जिस तरह चिंता जाहिर की जा रही है वह भी काफी दिलचस्प मामला है। भीड यदि दंगा करे, लूटपाट करे, बलात्कार करे तो इन्हें कभी कोई एतराज नहीं रहा है ऐसा हमारे समाज में खुलेआम होता रहा है। कश्मीर में भीड जब ऐसा करती है तो यही लोग उसे आजादी की लडाई कह देते हैं। दार्जिलिंग में भीड दंगा करती है तो उसे अलग राज्य की मांग कह देते हैं, तेलगांना राज्य की मांग में भी यही किया गया। अयोध्या में भी कथित श्रद्धालु भीड जब यही काम करती है तो उसे आस्था का मामला कह देते हैं और परोक्ष रूप से उसका समर्थन करते हैं। कहने का मतलब कि जो हिंसा इन्हें राजनीतिक फायदा पहुॅचाती है वह अच्छी है और जिससे इनकी पहचान कम होती है वह हिंसा बुरी होती है यह कैसा तर्क है? भीड ना भी मारे लेकिन कत्ल तो होते ही हैं। अखलाक हो या डा0 नारंग इन्हें चाहे भीड ने मारा या अकेले ने मारा इनकी जान गयी मुख्य चिंता यही होनी चाहिए लेकिन हम भीड को कैसे देख रहे हैं  हम इस पर बात करते हैं।  किसी को प्रेम सम्बन्ध में मारा गया, किसी को दहेज के कारण मारा गया, किसी को पारिवारिक या सामाजिक प्रतिष्ठा के नाम पर मारा गया। या किसी को लूट-पाट या लेन-देन के लिए मारा गया।  असल बात यह है कि इनमें से हम कुछ हत्याओं के तर्क से खुद भी सहमत होते हैं और कुछ तर्कों से असहमत होते हैं। असल बात हमारे मन के तर्क हैं। हत्या पर किसी को कभी ना एतराज रहा और ना एतराज है। जब तक इस मामले में हम साफ नहीं होते तब तक अधूरी बहस  हमारी हिंसक मानसिकता को और भी बढाऐगी इसके अलावा हम किसी समाधान पर नहीं पहुॅच सकते हैं। वह कातिल जो लोगों की जान ले रहा है वह हम सबका साझा दुश्मन है चाहे वह अकेला है या किसी मजहब या जाति की झंडाबरदारी कर रहा है इससे कोई फर्क नहीं पडता है। लेकिन हम भी कम हिंसक राजनीति नहीं करते हैं हम कातिलों की पहचान पर खामोश हो जाते हैं या उस तरह पहचान करते हें जिससे जाति मजहब का मामला उलझ सके। हम सिर्फ लाश पर नहीं बोलते है बल्कि उसकी जाति, मजहब और दूसरे बातों पर बोलते हैं लाश पर खामोश रहते हैं।  ऐसा इसलिए भी है क्योंकि हम भी भीतर से कमोवेश कातिल ही हैं, इसलिए कातिलों से हमें एक प्रकार का बिरादराना सम्बन्ध महसूस होता है। हम हत्या पर कभी भी नहीं बोले बल्कि हमने हर बार मारे गये आदमी के बहाने नई हिंसा का माहौल बनाया हैं, इस तरह कुछ और लाशें बिछाने की भूमिका तैयार की है।  जिस दिन हम अपने भीतर के इस कातिल को पहचान लेगंे तो बाहर के कातिल टिक नहीं सकते हैं चाहे कितनी ही बडी भीड की शक्लों में आयें।


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