सोमवार, 6 मार्च 2017

संसद से मिट रहे हैं वामपंथी, और अब कालेजों में भी पिट रहे हैं।

अमेरिका का मध्यपूर्व में अपना व्यापारिक हित था, अपने इस हित साधन के लिए अमेरिका ने इस क्षेत्र में नृशंस जनसंहार किये और पूरे मध्यपूर्व को बारूद के गुबार में डुबो दिया। जाहिर है कि इसके लिए एक वैचारिक नारे और उसकी व्याख्या की भी जरूरत थी। जार्ज बुश ने इसे सभ्यताओं के संघर्ष का नाम दिया था, और घोषणा की जो हमारे साथ नहीं है वह हमारा दुश्मन है। इस तरह बात करना यह कैसी सभ्यता थी? इस पर तो कभी बात ही नहीं हुई। कमोवेश सारी दुनियां ना सिर्फ तमाशा देखती रही बल्कि अमेरिका की ओर से इस तमाशे में भागीदार भी बन गयी। फिर सवाल उठा कि दो सभ्यताओं में तो कभी संघर्ष हो ही नहीं सकता, संघर्ष तभी हो सकता है जबकि इनमें से एक पक्ष असभ्य हो। लेकिन पहले आप मान चुके थे कि यह सभ्यताओं का संघर्ष है फिर इसे जुमला कहकर टाला जाना सम्भव नहीं था। इसलिए धर्म विशेष को ही असभ्य कहा गया और धर्म को ओसामा से लेकर बगदादी का पर्याय बना दिया गया। इसकी चरम परिणति यह हुई कि 2016 के अमेरिकी चुनाव का फैसला केवल इसी मुद्दे पर तय हो गया कि कौन मुसलमानों से ज्यादा नफरत करता है? ट्रंप के चुनाव जीत जाने के बावजूद समस्या हल हो गयी हो ऐसा बिल्कुल सम्भव नहीं था, समस्या और भी उलझ गयी यह दिखाई देने लगा है। अब अमेरिका में वे हिन्दु ही निशाने पर हैं चुनाव के दौरान जिन्हें ट्रंप  ने ”वी लव हिन्दूज“ कहा था। ट्रंप की ओर से इस मामले में कोई जवाबदेही वाला बयान अब तक नहीं आया। जो नफरत बोई गयी उसकी फसल तो काटनी ही पडेगी। अब अमेरिका ही नहीं, लगभग पूरी दुनियां में नया दौर चल निकला है कि आप्रवासी ही समस्या की जड हैं। अब मुसलमानों के अलावा अप्रवासियों तक बात चली गयी है। नफरत फैलती ही जा रही है। कल ही न्यूजीलैंड में एक भारतीय पर इसी कारण हमला किया गया। यहॉ तक बात समझ में आती है। जिन्हें शासन करना होता है वे इस तरह की तमाम तिकडमें करते रहते हैं। लेकिन जो तथाकथित प्रगतिशील ताकतें हैं यदि हम भारत के परिपेक्ष में देखे तो इनका हाल बहुत ही बुरा है। इनके पास कोई जवाब नहीं है ये भी मूलतः उसी तरह अमेरिका के ऐजेंट बन गये हैं जैसे कि कभी ओसामा अमेरिका के लिए काम करता था। दुनियॉ जानती है कि कश्मीर अर्न्तराष्ट्रीय राजनीति का भी अखाडा है। जब तक भारत ने अमेरिकी नीतियों के सामने घुटने नहीं टेके थे तब तक अमेरिका पाकिस्तान के जरिए कश्मीर में उसी तरह जिहादी भेजता था जैसे कि अफगानिस्तान में मुजाहिदीन भेजे जाते रहे। अब बात सैटल हो गयी है तो कश्मीर में  अर्न्तराष्ट्रीय दखल लगभग समाप्त सा हो गया है। लेकिन अमेरिका का दूसरा खेल जारी है। जे0एन0यू0 में कन्हैया, उमर, खालिद और रामजस में गुरमेहर कौर के जरिए जो सवाल उठाये गये हैं अभिव्यक्ति की आजादी और देशप्रेम की जो लडाई दिखाई पडती है उसका मकसद भारत की पुर्नव्याख्या है। इन लोगों का दावा है कि भारत एक नेशन नहीं बल्कि” मैनी नेशन्स विद इन एक नेशन“ है।  जाहिर ही है कि कश्मीर मसला और तथाकथित वामपंथी इस व्याख्या के जरिए नई किस्म की प्रगतिशीलता दिखाना चाहते हैं। यह बहस लम्बी हो सकती है लेकिन जिनकी नीयत बेईमान हो उनसे बात का कोई हासिल नहीं हो सकता हैं। यदि इनसे पूछा जाए कि इसी तर्क के आधार पर ये अमेरिका की व्याख्या कर लेगें? ट्रंप को बता सकते हैं कि मूल रूप में अमेरिका क्या है? इन कथित प्रगतिशील लोगों में से अधिकतर लोग डार्विन के विकासवाद से परिचित होगें तो क्या ये अपने पीछे पूॅछ लटकाना आज भी पंसद करेगें। भारत कल क्या था इसकी अपनी व्याख्या पेश करने से पहले उसके बारे में लोगों से बात तो करनी ही चाहिए या जो मन में आया उसे थोप ही देगें। कुल मिलाकर मोदी और इन तथाकथित प्रगतिशील ताकतों के खेल में बाहरी ताकतों का ही खेल चल रहा है, ये तो मोहरे मात्र हैं।


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