शुक्रवार, 15 अप्रैल 2011

मालेगॉव भी है दॉव पर ।

डा0 विनायक सेन को कानूनी संघर्ष के अन्तिम चरण में सुप्रीम कोर्ट से राहत मिल पायी। अन्यथा वे भी उन अनगिनत, बेकुसूर लोगों में शामिल हो जाते जो कालकोठरियों में सजा भुगत  रहे हैं।विनायक सेन इस मामले में थोडा भाग्यशाली रहे कि वे सामजिक कार्यकर्ता और मानवाधिकार जैसे मुद्दों के प्रतीक पुरूष बन पाये और उनके बहादुर मित्रों ने अन्त तक हार नहीं मानी। यह सोच कर भी सिहरन होती है कि किस तरह शक या सनक के आधार पर लोगों की जिन्दगियां दॉव पर लगी हैं। मालेगॉव बम विस्फोट के आरोपी जो पीडा भुगत रहे हैं उनकी कहानी भी डा0 सेन जैसी ही है,लेकिन इनका एक और भी दुर्भाग्य है कि अल्पसंख्यकवादी मुल्लाओं ने इसे अपनी राजनीति का मुद्दा बना लिया है। वे इसे मुसलमानों पर अत्याचार के रूप में पेश करके फायदा उठाना चाहते हैं।इनकी ऐसी मनगढंत व्याख्यायें होती हैं जिसका कोई भी जिम्मा ये नहीं लेते हैं। लेकिन एक मुद्दा जो राष्ट्रीय और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर लोगों का समर्थन और सहयोग पा सकता था वह दम तोडता नजर आ रहा है। सामजिक और मानवाधिकार कार्यकर्ताओं के लिए एक खेमे के लोग आवाज उठायें और जिनका कोई खेमा नहीं है वे इन राजनीतिक जुआरिओं के हवाले हो जांए तो यह देश का भी दुर्भाग्य है।व्यवस्थायें अक्सर ये समझती हैं कि लोगों को भयाक्रांत करके नियन्त्रण में रखा जा सकता है। इसके लिए कभी विनायक सेन हों ,तो कभी मालेगॉव के नाम पर सीधे-साधे लोगों को निकृष्ट आरोप लगाकर जेलों में ठूॅस दिया जाता है। ताकि लोगों में यह संदेश पहुॅच जाए कि किसी की भी जिन्दगी को सरकार आसानी से नरक बना  सकती है।आज विनायक सेन को लम्बी यंत्रणा से कुछ राहत मिली है,उपर वाले की दया हुई तो कल को मालेगॉव के आरोपी भी अपने घरों में लौट सकेगें हैं। इनको न्याय मिलने में तब तक बहुत देर हो चुकी होगी ,लेकिन अन्याय इतनी जल्दी किसी को भी क्यों मिल जाता है?




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