रविवार, 27 मार्च 2011

“सैलीब्रिटी” शरणम्.......


एक हिन्दी फिल्मी अभिनेत्री ने बर्ल्ड अर्थ आवर अभियान के अन्तर्गत भारत के लोगों से   उर्जा बचाने की अपील की ,इस अपील के असर पर आंकडे फिलहाल उपलब्ध नहीं हैं। पल्स पोलियो अभियान सहित  पर्यावरण से सम्बन्धित किसी भी विषय पर ,फिल्मी अभिनेता/अभिनेत्रियों या क्रिकेट खिलाडियों का इस तरह अपील करना मामले को बहुत अगम्भीर बना देता है। गम्भीर मुद्दों पर इस तरह की गयी कोई भी बात एक मसाला विज्ञापन जैसी ही हो जाती है। उर्जा संकट कोई एक विषय नहीं है।जिस पर भारत के सम्बन्ध में इस तरह  बिजली बुझाकर समाधान की बात की जाए ।जल,जंगल,जमीन से सम्बन्धित कोई समस्या हो  या नदियों की सफाई का मुद्दा हो वन्य प्रजातियों के विलुप्त होने की समस्या या फिर हर रोज जटिल होती जा रही जिन्दगी की समस्या ,इनको इस तरह टुकडों में नहीं समझा जा सकता है। इसी तरह का एक प्रकरण उस समय भी सामने आया जब शेरों के विलुप्त होने की खबर पर  प्रधानमंत्री मनमोहन सिंह रणथम्भौर गये थे । आनन फानन में उनके सामने एक  शेर हाजिर कर दिया गया ,तथा लम्बे समय से सक्रिय एक तस्कर को जेल में डाल दिया गया ।सवाल यह नहीं था कि प्रधानमंत्री को शेर दिखाने से यह समस्या हल हो जाती ।या किसी एक तस्कर को पकडने से ही इस समस्या का कोई निदान हो जाता ।सवाल था कि हमारे ही कारण शेर समाप्त हो रहे हैं। हमारी जीवन शैली न सिर्फ शेरों के विलुप्त होने का कारण बनती जा रही है बल्कि ओजोन परत जो हमारी रक्षा कर रही है हम ही उसके लिए खतरा भी बनते जा रहे हैं। लेकिन प्रधानमंत्री की जी-हुजूरी और एक तस्कर को हवालात भेजकर इस सवाल को ही समेट दिया गया। चूंकि शेरों के प्राकृतिक निवासों से खनिजों का दोहन करना है।इसलिए इस सवाल पर गोलमाल तो करना ही होगा । देश के विकास के लिए जितने खनिज की आवश्यकता है उससे शेरों या प्रकृति को कोई खतरा नहीं है।लेकिन स्वदेशी रेड्डी बन्धुओं और विदेशी कम्पनियों को जब लूट की छूट दी जाऐगी तो शेरों को तो  मरना ही पडेगा ।
      इसी तरह की हकीकत पानी बचाओ,वन बचाओ,पर्यावरण बचाओ, गंगा को बचाओ, उर्जा बचाओ जैसे नारों के पीछे भी है। आम आदमी पानी का धंधा नहीं करता है न ही वनों का दोहन करता है आम आदमी के कारण पर्यावरण का भी कोई नुकसान नहीं होता है। गंगा स्नान या एक आध कपडे धोने से भी गंगा दूषित नहीं है। जो लोग इसके लिए जिम्मेदार हैं उन पर कार्यवाही करने के बजाए जनसामान्य से इस तरह की अपील करने का क्या मतलब हो सकता है?यह सोचने वाली बात है । अब तो समाज से अपील करने के लिए किसी योग्यता/पात्रता की भी आवश्यकता महसूस नहीं हो रही है। विज्ञापन और आह्वाहन करने में अब कोई अन्तर नहीं रह गया है। चेहरे कम्पनियों का सामान भी बेच रहे हैं , और लोगों का मार्ग दर्शन करने में भी लगे हैं !


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