लोकपाल विधेयक के आंदोलन पर केन्द्रीय मंत्री सलमान खुर्शीद की यह टिप्पणी कि अन्ना के 10 समर्थकों की जगह हमारे पास 100 है, यह बयान बताता है कि आंदोलनों के प्रति सरकार का किस तरह का रवैया है। किसी मुद्दे को लेकर यदि लोग सडकों पर हैं तो सरकार की ओर से संवाद की जरूरत है, बहुत समझने और थोडा समझाने की जरूरत है न कि ताल ठोकने की । जिस मुद्दे से उद्वेलित होकर लोग सडकों पर आये हैं क्या ये लोग सलमान खुर्शीद के 100 लोगों की धमकी पर घरों को लौट जाऐगें ? सरकार अब संख्याबल के आधार पर लोगों से व्यवहार करेगी ?समस्या को सुलझाने के बदले प्रतिक्रिया में ”अपने लोगों“ को इकठ्ठा करेगी ? यह बयान विरोध को कुचल डालने वाली मानसिकता की यह वीभत्स अभिव्यक्ति है । चाहे सलमान इस तरह का काम कर पायें अथवा नहीं लेकिन यह सोच बहुत ही खतरनाक है। ऐसे लोगों के हाथों में सत्ता अनर्थकारी ही हो सकती है। जरूरी नहीं है कि सलमान लोगों के बीच मारपीट करवा दे अथवा अराजकता पैदा कर दे। लेकिन यह साफ है कि यह समझ विरोध होने पर किस कदर तिलमिला जाती है, यह बडा सवाल है। इनकी भद्रता और इनका लोकतंत्र तभी तक है जब तक लोग इनकी हॉ में हॉ मिलाते रहें।
बहुत से लोग इस आंदोलन पर गलत कारणों से टिप्पणी कर रहे हैं,अन्ना के साथियों पर सवाल उठा रहे हैं। इस आंदोलन को फिजूल बता रहे है। ये वे लोग हैं जो किसी दूसरे को स्वीकार नहीं कर सकते हैं। लोग सवाल पूछ रहे हैं कि अन्ना किसका प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। अपनी बात कहने के लिए किसी का प्रतिनिधि होना जरूरी है? यह सत्य है कि समाज वर्गों में बॅटा है लेकिन आम सहमति का कोई भी बिन्दु नहीं हो सकता है? जो लोग शंका और सवाल कर रहे हैं वे गतिमान होते समाज में कोई भी भूमिका नहीं निभाना चाहते हैं केवल टिप्पणी करने के। कुछ लोग इस आंदोलन में क्रान्ति की सम्भावना तलाश करने लगे हैं । उनके अपने पैमाने हैं ,अपनी मान्यतायें हैं ,धारणायें है दिलो- दिमाग में बसी हुई कुछ छवियां है। इससे बाहर देख पाना इनके लिए असम्भव है। इसीलिए एक मंत्री आंदोलन के लिए टपोरी टाईप भाषा बोल लेते है तो दूसरे किस्म के लोग विश्लेषणों में व्यस्त हैं। लेकिन अन्ना के कदम ने भारतीय संसदीय राजनीति में सत्ता और विपक्ष के नापाक गठजोड को तो तार-तार कर ही दिया है। सत्ता और विपक्ष की मिट चुकी सीमारेखा को अन्ना ने फिर से खींचा है । कम से कम एक सजग विपक्ष की कमी को अन्ना ने रेखांकित किया है। चाहे सलमान की टिप्पणी हो या आंदोलन के आलोचकों के विश्लेषण इनमें एक स्वर साफ सुनाई दे रहा है कि यह हलचल कुछ लोगों को अपने हितों के खातिर रास नही आ रही है। लेकिन अधिकांश लोग मानते हैं कि कुछ न होने से कुछ होना बेहतर ही है।
बहुत से लोग इस आंदोलन पर गलत कारणों से टिप्पणी कर रहे हैं,अन्ना के साथियों पर सवाल उठा रहे हैं। इस आंदोलन को फिजूल बता रहे है। ये वे लोग हैं जो किसी दूसरे को स्वीकार नहीं कर सकते हैं। लोग सवाल पूछ रहे हैं कि अन्ना किसका प्रतिनिधित्व कर रहे हैं। अपनी बात कहने के लिए किसी का प्रतिनिधि होना जरूरी है? यह सत्य है कि समाज वर्गों में बॅटा है लेकिन आम सहमति का कोई भी बिन्दु नहीं हो सकता है? जो लोग शंका और सवाल कर रहे हैं वे गतिमान होते समाज में कोई भी भूमिका नहीं निभाना चाहते हैं केवल टिप्पणी करने के। कुछ लोग इस आंदोलन में क्रान्ति की सम्भावना तलाश करने लगे हैं । उनके अपने पैमाने हैं ,अपनी मान्यतायें हैं ,धारणायें है दिलो- दिमाग में बसी हुई कुछ छवियां है। इससे बाहर देख पाना इनके लिए असम्भव है। इसीलिए एक मंत्री आंदोलन के लिए टपोरी टाईप भाषा बोल लेते है तो दूसरे किस्म के लोग विश्लेषणों में व्यस्त हैं। लेकिन अन्ना के कदम ने भारतीय संसदीय राजनीति में सत्ता और विपक्ष के नापाक गठजोड को तो तार-तार कर ही दिया है। सत्ता और विपक्ष की मिट चुकी सीमारेखा को अन्ना ने फिर से खींचा है । कम से कम एक सजग विपक्ष की कमी को अन्ना ने रेखांकित किया है। चाहे सलमान की टिप्पणी हो या आंदोलन के आलोचकों के विश्लेषण इनमें एक स्वर साफ सुनाई दे रहा है कि यह हलचल कुछ लोगों को अपने हितों के खातिर रास नही आ रही है। लेकिन अधिकांश लोग मानते हैं कि कुछ न होने से कुछ होना बेहतर ही है।
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