पूर्व निर्धारित कार्यक्रम के लिए अन्ना को इस आफिस और कभी उस ऑफिस में अनुमति के लिए भटकना पड रहा है। सरकार की ओर से सुझाव है कि इस सम्बन्ध में उपयुक्त कार्यालय से संपर्क करें। उनकी समस्या आसानी से हल हो जाऐगी। इसी उपयुक्त कार्यालय की तलाश में आम आदमी पिछले चौंसठ वर्षों से भटक रहा है । लेकिन वह ऑफिस अब तक किसी को नहीं मिल पाया है। जहॉ से समस्या का समाधान हो जाता है, फिर अन्ना को यह कैसे मिल जाऐगा जबकि वे आम आदमियों जैसी ही बात कर रहे हैं । यदि वे रेड्डी बंधु जैसे होते तो उन्हें ऐसे किसी कार्यालय से अनुमति की शायद जरूरत ही ना होती एक कार्यालय ही नहीं वे पूरे प्रदेश को बंधक जैसी स्थिति में रख सकते थे। तेलंगाना के नाम पर जो लोग खुलेआम उपद्रव करवा रहे हैं उन्हें किसी भी कार्यालय अनुमति की जरूरत नहीं होती है। कोई गॉवों को बंधक बनाये बैडा है, कोई जिले को ,और कोई राज्य स्तर पर यह धंधा कर रहा है। केन्द्र भी इससे अछूता नहीं है। रामदेव को कार्यालय जाने के लिए नहीं कहा गया था,उन्हें हवाई अड्डे पर रिसीव करने चार केन्इ्रीय कैबिनैट मंत्री हवाई अड्डे पर मौजूद थे ।
समाज के एक वरिष्ठ नागरिक कुछ कह रहे हैं उस पर ध्यान देने की बजाए इस तरह जलील करना किसी की भी समझ में नहीं आ सकता है। केन्द्रीय सरकार कोई राजवंशीय संस्कारों से संचालित नहीं है और ना ही तानाशाही मनोवृत्ति के लिए हमारे समाज में कोई जगह है। फिर कुछ-ऐक राजाओं को छोडकर होशो-हवास में रहने वाले राजा भी इस तरह नहीं बोलते थे वे भी रात को भेष बदलकर लोगों के सुख-दुखों को महसूस करने निकल पडते थे, इसमें नाटक जैसा कुछ भी नहीं यह सामान्य सी प्रक्रिया थी।
हमारी लोकतांंित्रक प्र्रक्रिया में यह एक बुनियादी गडबड आ गयी है कि सरकारें अपना वजूद दिखाने की कोशिश करने लगी है, जो कि वास्तव में होता ही नहीं है। सरकारें लोगों की सामूहिक इच्छा और क्षमता का ही प्रतिबिम्ब हैं। सरकार को लोकतंत्र में पॉच साल बाद शायद इसलिए ही भंग कर दिया जाता है जिससे सरकार के निरन्तर और निरंकुश होने की धारणा टूटती रहे। जिसके बोलने में भी परायापन हो वह जनता की सत्ता नहीं हो सकती है। केवल नाम जनतंत्र हो सकता है।
समाज के एक वरिष्ठ नागरिक कुछ कह रहे हैं उस पर ध्यान देने की बजाए इस तरह जलील करना किसी की भी समझ में नहीं आ सकता है। केन्द्रीय सरकार कोई राजवंशीय संस्कारों से संचालित नहीं है और ना ही तानाशाही मनोवृत्ति के लिए हमारे समाज में कोई जगह है। फिर कुछ-ऐक राजाओं को छोडकर होशो-हवास में रहने वाले राजा भी इस तरह नहीं बोलते थे वे भी रात को भेष बदलकर लोगों के सुख-दुखों को महसूस करने निकल पडते थे, इसमें नाटक जैसा कुछ भी नहीं यह सामान्य सी प्रक्रिया थी।
हमारी लोकतांंित्रक प्र्रक्रिया में यह एक बुनियादी गडबड आ गयी है कि सरकारें अपना वजूद दिखाने की कोशिश करने लगी है, जो कि वास्तव में होता ही नहीं है। सरकारें लोगों की सामूहिक इच्छा और क्षमता का ही प्रतिबिम्ब हैं। सरकार को लोकतंत्र में पॉच साल बाद शायद इसलिए ही भंग कर दिया जाता है जिससे सरकार के निरन्तर और निरंकुश होने की धारणा टूटती रहे। जिसके बोलने में भी परायापन हो वह जनता की सत्ता नहीं हो सकती है। केवल नाम जनतंत्र हो सकता है।
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