गुरुवार, 22 दिसंबर 2011

गीता को इनके समर्थन की जरूरत है?

          श्रीमद्भागवद गीता पर प्रतिबन्ध लगाने का मामला रूस की एक अदालत में चल रहा है। लेकिन इस प्रकरण को लेकर हमारे यहॉ कुछ राजनीतिक दलों और सरकार ने भी जितनी तत्परता दिखाई वह चौंकाने वाली है।सवाल उठता है कि भारतीय राजनीति में गीता को समझने वाले यदि इतने लोग हैं तो फिर देश की यह हालत क्यों होती जा रही है? जितने भी लोग गीता को लेकर चिंतित दिखने की कोशिश कर रहे है,ैं वास्तव में वे इस प्रकरण की ओट में राजनीति ही कर रहे हैं । इस विवाद को वे अपने लिए एक अवसर मानते हैं जिसे हाथ से जाने देना नहीं चाहते हैं, इससे अधिक इनको गीता से कुछ भी लेना देना नहीं है।रूस में गीता पर प्रतिबन्ध ,इनके लिए लोगों की भावनाओं से खेलने का एक नया मुद्दा भर है और सभी राजनीतिज्ञ इसका भरपूर दोहन करने के लिए सक्रिय हो गये है।  कोई भी धार्मिक ग्रंथ दुनिया में इसलिए प्रासंगिक नहीं है कि इनको कितने देशों, सरकारों ,राजनीतिक दलों अथवा दूसरे किस्म के प्रभावशाली लोगों का समर्थन मिला है।धार्मिक ग्रंथ इसलिए कायम है कि लोगों को इनकी जरूरत है।गीता ,कुरान और बाईबिल जैसे ग्रंथ पूरी मनुष्यता के ग्रंथ हैं ।इन पर किसी भी तरह का विवाद खडा करना या इन विवादियों के खिलाफ मोर्चा लेने की कोशिश करते हुए दिखना दोनों ही समान रूप से खतरनाक है। जो भी लोग धर्म की रक्षा करने का दावा करते हैं दरअसल वे खतरनाक किस्म के राजनीतिज्ञ ही हैं इसके अलावा वे कुछ नहीं है। धर्म का कोई ओर-छोर ही नहीं है तो फिर उसकी रक्षा करने का तरीका क्या हो सकता है ,धर्म को केवल जिया जा सकता है, या कहा जाना चाहिए कि धर्म में हुआ जा सकता है। जीसस ने धर्म की रक्षा के लिए इनकी तरह कोई प्रयास नहीं किया बल्कि कहा कि हे प्रभु इनको माफ करना क्योंकि से नहीं जानते कि वे क्या कर रहे है, यह धार्मिक वाक्य है ,लेकिन गीता प्रकरण को खतरनाक ढंग से हवा दी जा रही है।धर्म किसी से लडता नहीं और न ही उसकी ऐसी भाषा होती है, वह तो मनुष्य के अन्तस में प्रकाश जैसा फैलता ही जाता है किसी अन्धेरे से लडने की उसे कोई जरूरत ही नहीं । विज्ञान जिस तरह एक किस्म के अज्ञान को दूर करता है उसी तरह  धर्म का बोध हर किस्म के अज्ञान को मिटा देता है। गीता कुरान और बाईबिल जैसे ग्रंन्थ अलग-अलग रास्तांे से धर्म तक पहुॅचने के सूत्र देते है।जिससे व्यक्ति धर्म को महसूस कर सके, धार्मिक होना तो बहुत आगे की बात है, किसी को जबरन विवाद पैदा करना हो तो इसके लिए जरूरी है कि वह विवाद को ऐसे मुद्दे तक ले जाए जहॉ से इसके व्यापक होने की उम्मीद हो, शायद धर्म के नाम पर इतनी खुराफात इसी मकसद से की जाती है कि विवाद व्यापक स्तर तक फैल जाए। कोई माने या न माने धर्म ही व्यक्ति  का आधार जैसा है । लगभग वृक्ष की जडों जैसा ही, कुछ वृक्ष इस तथ्य को जान लेते होगें कि हमें खाद ,पानी और उर्जा समेट कर देने वाली हमारी जडें ही है, कुछ नहीं भी जानते होगें ,इसी तरह हमें अनन्त स्त्रोत से उर्जा देने वाला धर्म ही है चाहे हम इससे सहमत हों या न हों। लेकिन कुछ लोग धर्म को ”तेरा-मेरा˝ से अधिक कुछ समझ ही नहीं पाते है । जबकिें धर्म मनुष्य की चेतना की वह अवस्था है जहॉ  ”तेरा-मेरा˝ मिट जाता है, और राजनीति ”तेरा-मेरा˝ का ही दूसरा नाम है। इसलिए राजनीतिज्ञ यदि किसी धार्मिक  मामले में रूचि लेने लगें तो साफ है कि वहॉ विशुद्ध राजनीति ही है। राजनीतिज्ञ यदि धर्म को जरा भी समझ पाते तो देश की यह हालत नहीं होती।








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