शनिवार, 16 अप्रैल 2011

न्यायाधीश की चिंता।

भारत के मुख्य न्यायाधीश श्री एच0सी0 कपाडिया ने न्यायपालिका पर उठी शंकाओं को फिर से रेखांकित किया है और इससे बचाव के बिन्दुओं को अपने वक्तव्य में रखा।एक सरल व्यक्ति की सद्इच्छा के रूप में देखा जाए तो उनकी ये बातें उचित ही हैं लेकिन न्यायपालिका का भ्रष्टाचार इतने से ही काबू में आ सकता है यह मानने का भी कोई मजबूत आधार दिखाई नहीं देता है। जहॉ तक न्यायप्रणाली की स्वतन्त्रता और ईमानदारी का प्रश्न है। इसे वर्तमान हालत में बनाये नहीं रखा जा सकता है,क्योंकि न्याय को जब भी प्रणाली में ढालने की कोशिश की जाऐगी तो उसमें बेईमानी आ ही जाऐगी। न्याय का तंत्र आखिरकार उन्हीं विकारों से ग्रसित होगा जिस तंत्र ने आज लोक को अपना गुलाम बना लिया है।न्यायपालिका का वर्तमान संकट दरअसल वैसा ही संकट है जैसा कि  लोकतंत्र का हो गया है। क्या न्याय का भी कोई ”आफिशियल“ ढांचा हो सकता है? और यदि ऐसा होता है तो उसमें होने वाले बाबूराज को कैसे रोका जा सकता है? अक्सर यह कहा जाता है कि न्यायाधीशों को राजनीतिक पार्टियों के नेताओं और मंत्रियों के संपर्क से दूर रहना चाहिए। जबकि लोगों की मान्यता है कि न्यायाधीश बहुत ही योग्य व्यक्ति होता है, तो फिर उसे समाज से दूर क्यों रहना चाहिए? जहॉ तक नेताओं और मंत्रियों से संपर्क की बात है तो भ्रष्ट व्यक्ति चाहे कोई भी हो ,उसे समाज से दूर रहना चाहिए और डरना भी चाहिए।आज समाज अन्याय का अखाडा बनता जा रहा है। और न्याय की दुहाई केवल अदालतों तक ही सीमित है तो फिर केवल न्यायाधीशों से शिकवा शिकायत का कोई महत्व नहीं रह जाता है। न्यायाधीशों के लिए किसी भी प्रकार की आचारसंहिता बने यह अस्वाभाविक लगता है क्योंकि जो लोग समाज और राजनीति के लिए आचार संहिता बनाते हैं उन पर किसी भी तरह आचारसंहिता का अंकुश रहे तो यह उनकी योग्यता और नीयत पर अविश्वास करने जैसा है।जो लोग केसों की फाईल निबटाते हैं जरूरी नहीं कि वे सभी न्यायाधीश ही हों, उनमें से कितने ही बाबू भी हो सकते हैं।इसलिए इनके प्रति जो भी हमारी धारणा हो उससे न्यायाधीशों को अलग रखने की भी जरूरत है।
लेकिन जिस परिपेक्ष में भारत के मुख्य न्यायाधीश ने बात रखी है उसका अपना महत्व है। यह उस चिंता को दर्शाता है,जिसमें लोगों को समय से न्याय न दिला पाने की पीडा है। और जब तक यह दर्द बना है तब तक उम्मीद भी कायम है।

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