शनिवार, 30 अप्रैल 2011

मॉ के दूध जैसा होता है, जन आंदोलन।

अन्ना हजारे की पहल ने आम लोगों की बैचैनी को एक राष्ट्रीय अंादोलन की दहलीज तक ला दिया है, इस बात से शायद ही अब कोई असहमत होगें। सत्ता और जनता के बीच स्पष्ट विभाजन को लेकर लोगों में एकराय बनने लगी है।नागरिक समाज समिति का गठन इस बात का प्रमाण है कि सरकार इस वास्तविकता को मानने लगी है कि समाज और राजनीति का वह अकेले प्रतिनिधित्व नहीं करती है।इस लिहाज से समिति को सरकार द्वारा मान्यता देने पर मजबूर होना शुरूआत में ही बडी उपलब्धि है।लेकिन दूसरी तरफ सरकार और इनसे जुडे लोगों ने इस आंदोलन को अन्ना का आन्दोलन कहकर केवल अपने स्वार्थ के लिए इसकी महत्ता तथा प्रभाव को कम करने की कोशिशें तेज कर दी हैं। यह बात समझ से परे है कि कोई भी आंदोलन किसी व्यक्ति का आंदोलन कैसे हो सकता है?भक्ति मार्ग में एक व्यक्ति का आंदोलित होना सम्भव है,ै लेकिन राजनीतिक और सामाजिक संदर्भों में किसी आंदोलन को एक व्यक्ति के नाम से प्रचारित करना कुंठित लोगों का काम है, इससे अधिक कुछ नहीं । इस देश में आदोलनों के सबसे सफल प्रयोग गॉधी जी ने किये थें लेकिन किसी भी अंादोलन को गॉधी का आंदोलन कभी नहीं कहा गया। विदेशी सामान का बहिष्कार हो,सविनय अवज्ञा, असहयोग आंदोलन या भारत छोडो जैसे सभी आंदोलन मुद्दों के साथ लडे और जाने गये लेकिन आज इसे अन्ना का आंदोलन कहा जा रहा है ।स्थिति से परेशान होकर कभी अन्ना को तो कभी उनके सहयोगियों पर सवाल खडे किये जा रहे हैं ं यह एक कुचक्र और आम लोगों के खिलाफ षडयंत्र है। यदि आंदोलनों के साथ सरकारें या दुश्मनों जैसा सलूक करने लगेंगी तो माना जा सकता है कि सरकारों के गिने-चुने दिन ही रह जाऐगें। अन्ना और उनके साथियों ने किसी पद की उम्मीदवारी का पर्चा नहीं भरा है वे केवल उन चिंताओं की ओर ध्यान दिलाना चाहते हैं जिनसे लोगों की जिंदगियां और देश बर्बाद हो रहा है। लेकिन ये लोग अन्ना के सहयोगियों के गुनाह बताने में उत्सुक हैं। गुनाह तो गॉधी और टॉलस्टॉय जैसे लोगों ने भी किये और अपनी आत्म कथाओं में स्वीकारे हैं।यह बात घबराहट पैदा करती है कि है कि सरकार इस पर बिल्कुल भी चिंचित नहीं है, भ्रष्टाचार पर लीपापोती करके न सिर्फ बचने का प्रयास कर रही है बल्कि भ्रष्टाचार को भी आज का शिष्टाचार साबित करने की कोशिश करने लगी है। इसके लिए कभी प्रधानमंत्री के सलाहकार कहते हैं कि रिश्वत देने वाले को गुनाहगार नहीं माना जाना चाहिए तो कभी दूसरे तरीके से लोगों को इसके लिए राजी करने का प्रयास किया जा रहा है।अब तक ये लोग भ्रष्ट तरीकों का इस्तेमाल करते रहे थे, लेकिन अब भ्रष्ट तरीकों को जीवन मूल्यों की तरह स्थापित करने का नया दौर चलाया जा रहा है।
दूसरे मोर्चे पर आंदोलन को उन लोगों से चुनौति मिल रही है जो कहने को तो आंदोलनकारी है। लेकिन इनको जनआंदोलन से अधिक अपने नेतृत्व से प्यार है ये सोच भी नहीं पाते हैं कि नेतृत्व बहुत ही स्वाभाविक बात है, इसमें यदि किसी ने आग्रह रखे तो यह बर्बादी के लक्षण हैं। कुछ लोग कहते हैं कि भ्रष्टाचार के मुद्दे पर लम्बी लडाई नहीं लडी जा सकती है क्योंकि यह कारण नहीं परिणाम है।यह बात बिल्कुल सही हो सकती है लेकिन आंदोलन के गहराई में उतरने से पहले लोग ऐसे ही सरल मुद्दों पर एकराय बना रहे हैं, तो मुसीबत क्या है?कुछ न होने से कुछ होना तो बेहतर है ही। जनआंदोलन तो मॉ के दूध जैसा है जो बच्चों के लिए संपूर्ण आहार ही नहीं बल्कि ,आत्मा को भी तृप्त करने वाला है। एक बार देश में जनआंदोलन बन जाए तो नेतृत्व भी बनेगा और देश की समस्यायें भी हल होगीं ,दूसरा कोई रास्ता है भी नहीं।

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