शनिवार, 18 जून 2011

लोकपाल प्रश्न नहीं पहेली है।

अन्ना हजारे को धमकाने की सरकार की सभी कोशिशें अब तक लगातार नाकाम होती जा रही ंहैं,कपिल सिब्बल की अगुआयी में अन्ना को अपमानित करने के लिए जिस तरह लगातार आरोप लगाये जा रहे हैं । उससे यह तो स्पष्ट ही होता जा रहा है कि सरकार डरी हुई है।सरकार द्वारा नागरिक समाज को मान्यता देने के बाद इसके औचित्य पर ही सवाल उठाने से सरकार की किरकिरी हुई है। लगभग आधा काम हो चुकने के बाद इनको याद आ रहा है कि विधायिका,कार्यपालिका और न्यायपालिका के रहते अब लोकपाल के लिए स्थान रिक्त नहीं है। ऐसा करने से पूरी संरचना ही बिखर सकती है। लेकिन सरकार यह नहीं बताती है कि लोकतंत्र के इतने पहरूए होने के बावजूद लोगों का विश्वास टूटने क्सों लगा है? जिस कारण लोकपाल की मांग हो रही है। जैसा तंत्र है क्या देश के लोगों को इसके ही अनुसार चलना होगा या समय और आवश्यकता के अनुसार इसमें परिवर्तन लाना होगा। अक्षम लोग यदि यह दिखाना चाहते हैं कि संविधान और व्यवस्था का हवाला देकर वे कोई देश भक्ति का काम कर रहे हैं तो यह केवल दिखावा है,ढकोसला है,धोखा है। इनको केवल अपनी गद्दी से आसक्ति है। जनभावनायें और लोकतंत्र की कोई भी चिंता होगी ऐसा मानने का कोई आधार नहीं है।लोगों को बहकाने की कोशिशें अब भी काम करती रहेंगी ऐसा लगता नहीं है। प्रश्न यह भी है कि प्रधानमंत्री के होते हुए लोकपाल की मांग क्यों उठने लगी है। क्या यह मांग प्रधानमंत्री के खिलाफ अविश्वास का सबूत नहीं माना जा सकता है?सतर्कता आयोग,जॉच और सुरक्षा ऐजेन्सियों जैसे तमाम लाव-लश्कर के बावजूद ससंद भवन के अन्दर गलत उद्देश्य के लिए नोटों के बण्डल पहुॅच जाते है।सत्ता पाने के लिए किस हद तक अवसरवादिता चलती है,मंत्रियों के बीच विभागों का वितरण ,खुलेआम शेयर के आधार किया जाता है। अपने लोगों को खुश करने के लिए नये-नये मलाईदार पद सृजित कर बॉटे जाते हैं इस तरह लोकतंत्र से मजाक अन्ना कर रहे हैं या सत्ता से चिपके हुए लोग!इस व्यवस्था में लोकपाल के लिए जगह है या नहीं । लोकपाल कल को इन्हीं विकारों से ग्रस्त होगें या नहीं जिनसे पूरी व्यवस्था ग्रस्त है। ऐसे बहुत से सवाल उठाकर तथा अन्ना और इनके सहयोगियों पर आरोप लगाकर सरकार इस मुद्दे को बहस में उलझाना चाहती है।लेकिन सरकार उस आवाज को नजरअंदाज कर रही है।जिसमें लोकपाल के बहाने सरकारों पर ही सवाल उठाया जा रहा है।

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