बुधवार, 29 जून 2011

अन्ना से परेशान हैं सत्ता के ठेकेदार।

16 अगस्त से अन्ना द्वारा आमरण अनशन पर जाने की घोषणा से सरकार और नागरिक समाज में टकराव की स्थिति बनने लगी है। इसमें सन्देह नहीं है कि असहनीय होते भ्रष्टाचार के कारण ही अन्ना आंदोलन का आधार तेजी से बढता जा रहा है। दॉव-पेंचों के बावजूद इस बात को सभी स्वीकार करने लगे हैं कि हमारे लोकतांत्रिक संस्थानों की विश्वसनीयता बहुत ही कम हो चुकी है।इसलिए लोकपाल के नाम से एक नये संस्थान की जरूरत है । हांलाकि यह थ्योरी निर्विवाद नहीं है इस पर भी बहुत से सवाल हैं। लेकिन अन्ना पर फिलहाल कोई सवाल नहीं हैं क्योंकि उन्होनें इस बात को कहने साहस किया है कि भ्रष्ट लोगों के कारण लोकतांत्रिक संस्थानों पर अब निगरानी और नियन्त्रण की आवश्यकता है,प्रजातंत्र में कोई भी निरंकुश और जवाबदेही से परे नहीं हो सकता है। लेकिन इससे उन लोगों के अहंकार को भारी चोट पहुॅची है जो कि सांसद,विधायक या किसी भी स्तर पर प्रतिनिधि चुने जाने के बाद लगभग स्वेच्छाचारी ,निरंकुश और खुद को जवाबदेही से परे मानते रहे हैं। प्रतिनिधि चुने जाने और प्रतिनिधि होने के बीच के अन्तर का इन्हें कुछ भी पता नहीं होता है। इसलिए लोकतंत्र के बारे में इनकी समझ और कार्यप्रणाली खतरनाक होती जा रही है।
आज जब राजनीतिक दलों के बीच का अन्तर, सत्ता और विपक्ष के बीच का अन्तर लगभग समाप्त हो चुके हैं ऐसे में अन्ना की पहलकदमी ने सकारात्मक माहौल बनाने में महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। यह निश्चित है कि लोकपाल से किसी भी प्रकार की परेशानी का आभास होते ही सरकार इसे त्रिशंकु की तरह लटका देगी लेकिन इससे विश्वामित्रों का महत्व कम नहीं हो जाता है।

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