शनिवार, 2 जुलाई 2011

पहला लोकपाल।

लोकपाल आंदोलन के बाद लगभग सभी राजनीतिक दलों को सकते में है, किसी से भी यह न तो उगला जा रहा है और न ही कोई इसे निगल पा रहा है।पहली बार एक आंदोलन किसी विचारधारा,किसी राजनीतिक दल या किसी व्यक्ति के विरोध से शुरू नहीं हो रहा है ,और इसी कारण कोई इसका प्रत्यक्ष विरोध भी नहीं कर पा रहा है। जिनको इस आंदोलन से खतरा है वे इसका मतलब समझते हैं, इसीलिए वे किन्तु-परन्तु कर रहे रहे हैं इससे उनकी कसमसाहट को समझा जा सकता है। उनकी घबराहट इस बात को लेकर भी है कि यदि इसी बहाने जनआंदोलनों का दौर चल पडा तो वही लोग राजनीति में रह पायेगें जो आंदोलनों को पैदा करते हैं या जिन्हें आंदोलन पैदा करेगा। फिर इन रेडिमेड ब्रान्डेड नेताओं का क्या होगा? शानों-शौकत,ऐशो-आराम,और शासक होने का वो मजा कैसे कायम रहेगा?
दरअसल इस लडाई के पक्षकारों के पास खोने के लिए कुछ नहीं है। और इसके विरोधियों के पास पाने के लिए कुछ नहीं है। जितनी लम्बी यह लडाई चलेगी उतना ही इसके विरोधियों की मुसीबतें बढेगीं,क्योंकि लोकपाल से व्यवस्था मंे असंतुलन पैदा होने की जो बात सरकार की ओर से कही जा रही है वह मूलतः गलत है। वास्तव में तो व्यवस्था के असंतुलन को ठीक करने के लिए ही लोकपाल की बात उठी है।वर्तमान व्यवस्था के कारण ही यदि अव्यवस्था हो जाए तो फिर सरकार, जनता के साथ होगी या व्यवस्था के नाम पर लोगों का उसी तरह दमन करेगी जैसा कि मध्यपूर्व के शासक कर रहे हैं।
मान भी लिया जाए कि एक बहुत ही मजबूत लोकपाल का गठन हो जाए तो फिर क्या होगा? उसके बाद एक कार्यालय होगा इसमें कुछ बाबू होगें कुछ चपरासी होगें वही संस्कृति होगी,जनता फरीयादी और लोकपाल लगभग हुक्मरॉ होगें,नया कुछ भी नहीं होगा । इसलिए घबराने की बात नहीं है।संविधान निर्माताओं ने प्रधानमंत्री को भी लोकपाल जैसा ही बनाया था ,आज प्रधानमंत्री कटघरे में हैं, कल को लोकपाल होगें ही ।इस आंदोलन की महत्वपूर्ण उपलब्धि यह है कि इसने समाज और राजनीति में एक नया मंथन शुरू कर दिया है। जिसका पूरा श्रेय अन्ना और उनके साथियों को ही जाता है। यह निश्चित है कि लोकपाल कैसे भी बनें कोई भी बनें, अन्ना ही इस दौर के प्रथम और सच्चे लोकपाल कहलाऐगें।

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