शनिवार, 9 जुलाई 2011

सरकार और विपक्ष न्याय के कटघरे में।

किसानों की अधिकृत की गयी जमीनों को तुरन्त वापस लौटाने के सुप्रीम कोर्ट के आदेश से देश में एक नई उम्मीद जगी है कि अब आत्महत्या करना ही अन्तिम मार्ग नहीं है, सुप्रीम कोर्ट में दरवाजे अभी तक न सिर्फ खुले हैं बल्कि जिस सरोकार के साथ अदालत ने इस समस्या को समझा और सरकार को फटकार लगाई है। उससे जाहिर है कि यदि सारी राजनीतिक पार्टियां भी लोगों के खिलाफ एकराय बना लें, एकजुट हो जांए, ससंद विधानसभाओं में मनमानी कर लें लेकिन न्याय के सामने इनके कोई भी वकील और दलील टिक नहीं सकेगें ।प्रजातंत्र की मनमानी व्याख्या की जा सकती है, लेकिन न्याय मनमाना नहीं होता है।यह कोई सुखद स्थिति नहीं है कि सुप्रीम कोर्ट को हस्तक्षेप करना पडा है।यह अन्तिम आस थी यदि यहॉ भी कोई भूल-चूक या अनहोनी हो जाती तो इस देश का क्या होता? लोकतंत्र में विधानसभाओं और संसद की स्थितिं सुप्रीम कोर्ट जैसी ही होती है।तो फिर यहॉ लोगों की बात क्यों नहीं सुनी जा रही है? यह एक बडा सवाल बनता जा रहा है। जिन संस्थाओं का अस्तित्व ही लोगों के विश्वास पर टिका है वही लोगों से विश्वासघात करने लगें तो यह कैसी उलटबांसी है? कहने को विधानसभाओं और संसद में पक्ष विपक्ष दोनों हैं। लेकिन नतीजों से ऐसा नहीं लगता कि वहॉ कोई ऐसा विपक्ष भी है, जो निरंकुश होती सत्ता पर जनता की ओर से किसी भी प्रकार का नियन्त्रण रख रहा हो। यदि यह प्रक्रिया काम करती तो सुप्रीम कोर्ट को इस तरह न सिर्फ अपना समय बर्बाद करना पडता और न ही इस तरह की टिप्पणी देनी पडती। यह हास्यास्पद और लोकतांत्रिक प्रक्रिया का मखौल उडाना जैसा ही है कि किसान आंदोलन के नाम पर राजनीतिक पार्टियां अब किसानों के बीच जा रही है। अदालत से फटकार खाने के बाद राजनीतिक दलों को समझ में आने लगा है कि प्रजातंत्र में राजनीतिक दल प्राईवेट लिमिटेड की तरह नहीं चलाये जा सकते है। जिस दल में लोगों का प्रतिनिधित्व नहीं होता है, उसे जनता के बीच जाने का नाटक करना पडता है।यदि वास्तव में ये लोग जनप्रतिनिधि हैं तो फिर विधानसभाओं और संसद में लोगों के खिलाफ ऐसी नीतियां कैसे बन रही हैं । जिनके कारण देश में हाहाकार मच रहा है, और सुप्रीम कोर्ट को हस्तक्षेप करना पड रहा है।

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