मंगलवार, 9 अगस्त 2011

खतरा अर्थव्यवस्था पर नहीं ,खतरनाक यह अर्थव्यवस्था है।

आज दुनियां भर में अमेरिका के नेतृत्व वाली सभी अर्थव्यवस्थाएं लगभग उसी तरह के संकट में हैं जैसे कि 90 के दशक में सोवियत संघ मॉडल की अर्थव्यवस्थाएं आ गयी थी। इन संकटों के कारण पूर्वी यूरोप सहित सोवियत संघ का न सिर्फ भूगोल ही बदल गया बल्कि अर्थ तंत्र और राजनीतिक व्यवस्थायें तक बदल दी गयी ,यह दूसरी बात है कि बदले में उन्होनें संकट को न सुलझा कर केवल अमेरिकी अर्थव्यवस्था को ही अपना लिया ,उस वक्त अमेरिकी नेतृत्व वाली अर्थव्यवस्थायें जो कि आज खुद वैसे ही संकट में हैं उस समय इसे अपनी विचारधारात्मक विजय के रूप में प्रचारित कर रही थी। जबकि यह साबित हो चुका है कि वह अर्थव्यवस्था अपने ही अर्न्तविरोधों के कारण डूबी और आज अमेरिकी नेतृत्व वाली अर्थव्यवस्था भी अपने ही अर्न्तविरोधों के कारण डूब रही है। एक दूसरे से इनका कुछ भी लेना-देना नहीं था। यह कहना भी शायद उचित न होगा कि अर्थव्यवस्थायें संकट में है। गलत अर्थव्यवस्थाओं के कारण दुनियां उस समय भी संकट में थी और आज फिर यह संकट सामने है। यदि यह केवल अर्थव्यवस्थाओं का संकट होता तो इसे दुरस्त कर लिया जाता। लेकिन इन अर्थव्यवस्थाओं के मठाधीश अन्त तक दुनियां को अपनी पकड से मुक्त नहीं होने देना नहीं चाहते हैं यही चिंता का मुख्य कारण है, इसीलिए संकट पर कोई विचार नहीं किया जा रहा है कि यह परिस्थिति पैदा क्यों हुई है? केवल संकट से बाहर निकलने पर ही चर्चा की जा रही है। यदि आज कोई ऐसा रास्ता निकल भी आये कि विश्व के पूॅजीबाजार में फिर से चहल-पहल होने लगे तो इसका यह मतलब बिल्कुल नहीं होगा कि विश्व अर्थव्यवस्था के कारण बेरोजगारी , मंहगायी ,असुरक्षा और सामाजिक ताने-बाने के छिन्न भिन्न हो जाने पर कोई रोक लग पायेगी। वास्तव में जिन्हें सरकारों की अर्थव्यवस्था कहा जाता है वे पूॅजीपतियों की अर्थव्यवस्था ही है। दुनियां में दो अर्थव्यवस्थाएं हैं एक आम आदमी की अर्थव्यवस्था जो हमेशा ही संकट ग्रस्त रही। इसके कारण अधिसंख्य आबादी कदम-कदम पर न सिर्फ अपमानित होती है। बल्कि आभावों के बीच ही जद्दोजहद में ही जिन्दगी गुजर जाती है। वे लोग अपने को खुशनशीब समझते हैं जिनकी जिन्दगी गुजर पाती है अधिकांश लोग तो जिन्दगी पूरा होने से पहले ही गुजर जाते हैं। इस संकट को लेकर कभी इस तरह हायतोबा नहीं मचती है,क्योंकि यह आम आदमी की अर्थव्यवस्था है। लेकिन पूॅजीपतियों की अर्थव्यवस्था को सरकार अपनी अर्थव्यवस्था कहने से भी गुरेज नहीं कर रही है। आम आदमी को लेकर तो कभी इतनी चीख पुकार नहीं मचती है। यदि सरकार यह समझती है कि पूॅजीपतियों के तानेबाने के बीच वह पूरी तरह उलझ गयी है तो पूरा सच लोगों के सामने क्यों नहीं लाती है कि मुनाफाखोरी के कारण ही यह संकट पैदा हुआ है। यदि कोई यह समझता है कि इस अर्थव्यवस्था के पतन को रोका जा सकता है तो यह गलत है इसे केवल टाला जा सकता है और टालने के ही प्रयास किये जा रहे हैं। कुछ लोग समझते हैं कि वर्तमान अर्थसंकट से उथल-पुथल हो जाऐगी तो उन्हें शायद अनुमान भी नहीं होगा कि इस अर्थव्यवस्था के कारण जो उथल-पुथल
हो रही है। उसका तो अनुमान भी नहीं लगाया जा सकता है।

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