शुक्रवार, 5 अगस्त 2011

अर्थ(कु)व्यवस्थायें डूब नहीं रहीं हैं, लोगों को डुबो रही है।

भारत समेत विश्व भर की तथाकथित आदर्श अर्थव्यवस्थायें हिचकोले खा रही है।कुछ देश दिवालिया होने के कगार पर है। और बहुत से देशों ने अपमानजनक शर्तों पर कर्ज लेकर स्थिति को फिलहाल टाला है। भारत भी इन्हीं संकटों से जूझ रहा है। लेकिन हम संकटों को छुपाने में माहिर है। क्योंकि यह संकट भी नेताओं के भ्रष्टाचार के ही कारण है,आाखिरी दम तक इस ेछुपाने की कोशिशें की जा रही है। हमारे यहॉ फील गुड से लेकर किसी खिलाडी को भगवान कहने तक की फूहड बातों पर तो खूब चर्चा होती है ताकि लोग इसमें उलझे रहें । लेकिन हमारे नेता क्या नीतियां लागू कर रहे हैं देश को किस ओर ले जा रहे हैं इस पर कोई बात तक करने को तैयार दिखाई नहीं देता है, इस संकट ने हमारे देश में बहुत पहले से ही जडें जमा ली हैं और पूरे देश को अपनी गिरफ्त में ले ही लिया है। लोग बेरोजगार है,मंहगायी से त्रस्त हैं और सामाजिक असुरक्षा अपने चरम पर है। हमारा सामाजिक,आर्थिक और राजनीतिक ढांचा बिखर ही चुका है केवल प्रशासनिक ढांचा काम कर रहा है। यह प्रशासन हमें बताता है कि खर्च में कटौती और टैक्स वसूली से अर्थव्यवस्था को पटरी पर लाया जा रहा है। दरअसल इस फार्मूले से केवल सामूहिक नरसंहार किया जा सकता है ,और किया भी जा रहा है, इसके अलावा इस बारेे में विचार तक करना पाप है। यदि सरकारों का काम केवल इतना ही रह गया है कि वे जनता से अधिकतम टैक्स वसूलें और खर्च में कटौती के नाम पर कल्याणकारी काम करना भी बंद कर दें तो सरकारों का काम ही क्या रह जाता है? इनका औचित्य ही क्या है। यह कडवा सच है कि टैक्स वसूली पूॅजीपतियों से उस तरह नहीं की जाती है जिस तरह से आम आदमी से की जाती है। पूॅजीपतियों को तो आयात-निर्यात में छूट दी जाती हैं औने-पौने दामों पर जमीनें दी जाती है। मामूली सा टैक्स चुकाकर वे अपना मुनाफा (इसे लूट तक कहा जा सकता है)कहीं भी दूसरे देशो ंमें ले जाने को स्वतंत्र हैं।मुनाफा निश्चित करने के लिए काउंटर गारटी दी जाती है।ऐसी ही अनगिनत सहूलियतें सरकार उन्हें बिन मांगे ही दे देती है।
वास्तव में सरकार का यह काम नहीं हैं कि वह सामाजिक अर्थव्यवस्था को तबाह कर राजनीतिक अर्थव्यवस्था थोप दे। सरकारों में बैठे हुए लोग चाहते हैं जनता से टैक्स वसूली कर अधिकतम पैसा अपने नियन्त्रण में ले लिया जाए, और फिर दो-चार मनरेगा या तीन रू0 किलो चावल जैसी योजनायें चलाकर लोगों में अपनी छवि बनाई जाए बाकी पैसा भ्रष्टाचार के जरिए हडप लिया जाए। पूॅजीपतियों से नेताओं को अथाह धन नहीं मिल सकता है आखिर वे भी तो धन कमाने के लिए इतनी जोड-तोड में लगे हैं ।सरकारें एक सी ही होती है चाहे वे ढाका की मलमल को बरबाद करने के लिए अंग्रेज साकार हो ,या फिर पूॅजीपतियों के लाभ लिए हमारे तंत्र को बरबाद करने वाले लोग हों । जवाहर लाल नेहरू को आधुनिक भारत का निर्माता कहने वाने लोगों ने उनकी ही रखी हुई बुनियाद को किस तरह उखाडा यह किससे छुपा है?सामाजिक अर्थव्यवस्था को तबाह करके कोई अर्थव्यवस्था यदि चलाई जाऐगी तो वह अर्थकुव्यवस्था ही होगी । निगरानी और संतुलन बनाये रखने के दायित्व से अधिक सरकार की इस क्षेत्र में और कोई भूमिका नहीं है।सरकार ,जनता की माई बाप नहीं है, और यदि वह बनना चाहती ही है तो फिर अर्थव्यवस्था के इन संकटों की जिम्मेदारी वह अपने उपर क्यों नहीं लेती है?

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