सोमवार, 20 मार्च 2017

राजनीति का उपभोक्तावाद।

      केन्द्र में मोदी के उदय और देश के सबसे बडी आवादी वाले राज्य उत्तर प्रदेश की बागडोर एक सन्यासी के हाथ में आ जाने के बाद यह सवाल पूछा जाने लगा है कि क्या देश की दिशा बदल रही है? मोदी को आशातीत बहुमत मिलने के बाद भी लोग बहुत परेशान नहीं हुए, बीते इन तीन सालों में वैसा कुछ हुआ भी नहीं जिससे घबराहट फैले, लेकिन आदित्यनाथ द्वारा मुख्यमंत्री के रूप में शपथ लेने से अब कुछ तटस्थ लोगों में भी घबराहट होने लगी है। कि आखिर माजरा क्या है? हांलाकि मायावती के खिलाफ अपमानजनक बात कहने वाले दयाशंकर को चुनाव जीतते ही जिस तरह वापस लिया गया और उत्तर प्रदेश में दंगे के कुछ आरोपी लोगों को पहले निर्वाचन के बाद ही जिस तरह मंत्रीमण्डल में शामिल किया गया उसे संकेत ही माना जा रहा है। भाजपा संकेत की भाषा पर बहुत अधिक भरोसा करती है। लेकिन अब स्थिति इस मामले में बदल गयी है कि संकेत देने वाले बलपूर्वक भी अपनी बात लागू करने की वैधानिक हैसियत में आ गये हैं। जानकार लोगों का मानना है कि यह संकट मूल रूप से साम्प्रदायिकता का नहीं अर्थव्यवस्था की असफलता का है। नोटबंदी को लोगों के व्यापक समर्थन के बावजूद मोदी अर्थव्यवस्था में कुछ कर पाने में बुरी तरह असफल रहे हैं। साम्प्रदायिक राजनीति को मोदी ने आधुनिकता और प्रगतिशीलता के अवतार के रूप में जिस तरह पेश किया उसे लोगों ने स्वीकार तो कर लिया लेकिन इसका कोई सकारात्मक परिणाम सामने नहीं आ पाया है, इसकी कोई उज्जवल तस्वीर भी दिखाई नहीं पडती है। कुल मिलाकर देश अब दोराहे पर है। मोदी इस खतरे को भॉप चुके हैं। इसलिए आदित्यनाथ के गियर में राजनीति को डालना उनकी मजबूरी है। लोग जिस तरह साम्प्रदायिकता को हिन्दू या मुसलमान साम्प्रदायिकता के रूप में देखते हैं यह नजरिया ठीक नहीं है। साम्प्रदायिकता दूसरे साम्प्रदायिक तर्कों के सहारे ही चल पाती है इसका अपना ना तो कोई गणित होता है और ना ही कोई विज्ञान। अब तक कांग्रेस और वामपंथी इसका फायदा उठाते रहे अब मोदी और उनके साथी इसका फायदा उठा रहे हैं। जब भी अर्थव्यवस्थाओं और सत्ताओं के संकट गहराते हैं तभी साम्प्रदायिकता के सहारे  वे समस्या से बच निकलने की कोशिश करते हैं अमेरिका में ट्रंप की राजनीति हो या फिर भारत में मोदी की राजनीति इसमें कोई गहराई नहीं है सिर्फ चतुराई है। जब तक लोग इस पूरी राजनीति के विकल्प पर बात नहीं करते तब तक हालात में कोई बदलाव नहीं आयेगा। आदित्यनाथ जैसा साफ तौर पर बोलते हैं मोदी ठीक वैसा ही अपनी भाव-भंंिगमा से जाहिर करते हैं समझ दोनों की एक ही है। लोगों के सामने अजीब स्थिति इसलिए भी आ गयी है कि राजनीति को हमने अपने जीवन से बाहर कर दिया और कुछ पेशेवर लोगों के ही हाथ में सारी राजनीति सौपं दी। कमोवेश हम राजनीति के उपभोक्ता हो गये  जिसकी राजनीतिक पैकेजिंग आकर्षक और आक्रामक हो हम उसके पीछे हो लिए। संक्षेप में कहा जा सकता है कि सारे सूत्र हमारे हाथ से बाहर हो गये हैं और हम राजनीति के तमाशबीन की हैसियत तक ही सीमित रह गये हैं।

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