बुधवार, 5 अप्रैल 2017

विजय माल्या और पराजित किसान।

बच्चों को धर्मों के झगडों के बारे में तो कुछ पता नहीं होता है, लेकिन इन धर्मों का आधार रही कुछ कहानियां दिल की गहराई में उतर जाती है इन्हीं में से एक सेंटाक्लाज की कहानी भी है। किस तरह सेंटाक्लाज एक परिवार की दुखभरी दास्तान को चुपके से सुनते हैं और उतनी ही खामोशी से उनकी मदद करते हैं इसी तरह हमारे यहॉ भी कहा जाता है कि किसी को एक हाथ से मदद करो तो दूसरे हाथ को भी पता नहीं चलना चाहिए। लेकिन किसानों को मदद के नाम पर जितना प्रचार किया जाता है अक्सर वह अभियानों का रूप ले लेता है। फिलहाल उत्तर प्रदेश के किसान उसी जलालत से दो चार हो रहे हैं ऐसा लगता है कि जैसे किसानों ने कोई पैसे का गबन कर लिया हो या  उन्होनें भ्रष्टाचार किया हो जबकि किसानों की यह हालत सरकारी नीतियों के कारण हुई है, वे गुनहगार नहीं बल्कि पीडित है उन्हें इस पीडा का मुआवजा तो दूर, जीवित रहने के लिए भी जो मदद की जा रही है वह नाकाफी है और लगता है कि जैसे उन पर बडा एहसान किया जा रहा हीै। जबकि सरकारें माल्या और सुब्रत रॉय की भी मदद करती रही हैं यदि अदालत हस्तक्षेप ना करती तो ये दोनों महानुभाव कितना डकार गये पता भी नहीं चलता। कॉरपोरेट घरानों के अरबांे-खरबों रूपये यूॅ ही राईट ऑफ कर दिये जाते हैं। सरकार द्वारा इनको दी जाने वाली सब्सिडी, दूसरी सहूलियतें , खुशामदों और उठाये जाने वाले नाज-नखरों का तो कोई हिसाब ही नहीं। कहने का मतलब यदि वोटों की राजनीति ना हो तो कोई किसानों को पूछने वाला भी नहीं है। यह स्थिति ठीक नहीं है। किसानों को या किसी भी दूसरे पेशे को यदि अस्तित्व के संकट से गुजरना पड रहा है तो इसे किसानों की समस्या से अधिक व्यवस्था की समस्या माना जाना चाहिए और इसे चुनावी मुद्दे से परे अधिक गहराई से सुलझाये जाने की जरूरत है। दाता और भिखारी वाले सम्बन्ध ठीक नहीं हैं किसानों को अनुदान के तौर पर नहीं बल्कि उनके अधिकार के तौर पर समाज और सरकार को उनके साथ खडा होना चाहिए। चुनाव हर साल तो होते नहीं फिर क्या हमें अपनी समस्या सुनाने के लिए पॉच साल का इंतजार करना होगा! यह महज चुनावी वादा पूरा करने का सवाल नहीं है बल्कि ऐसा बुनियादी सवाल है जो इस देश की जडों से जुडा है और केवल यू0पी0 के ही किसानों का सवाल नहीं है बल्कि पूरे देश के किसानों का सवाल है।



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