मंगलवार, 8 मार्च 2011

राजनीति में उलझे आंदोलन।


तमाम कोशिशों के बावजूद स्थितियॉ अब कमोवेश वहॉ तक पहुॅचती जा रही हैं।जहॉ एक शायर ने कहा कि मर्ज बढता ही गया ज्यों-ज्यों दवा की। आंदोलनों के बावजूद समस्यायें कहीं अधिक तेजी से बढती ही जा रही हैं। आंदोलन अब त्यौहारों की तरह रस्मी होते जा रहे हैं।लेकिन स्थिति इस कारण गम्भीर हो गयी है क्योंकि ये कथित आंदोलनकारी भटकने से आगे बढकर अब बेईमानी पर आ गये हैं।
ऐसे लोगों के लिए आंदोलन का महत्व हलचल पैदा करने से अधिक नहीं हैं।इनके लिए किसी भी तरह हलचल पैदा कर लेना ही आंदोलन है। ,इसलिए जो भी हलचल पैदा कर सके वह अपने को स्वाभाविक रूप से आंदोलनकारी मान लेता है।जबकि आंदोलन का मतलब उस प्रवाह से है जिसमें न सिर्फ रचनात्मकता को नये आयाम मिलते है बल्कि पूरा समाज और मानवता समृद्ध भी होती है।लेकिन आंदोलनकारी दिखने के आकर्षण के कारण कृतिम आंदोलन भी खडे किये जाते हैं।ताकि कुछ लोग आंदोलनकारियों जैसे दिख सकें। मन्दिर और मस्जिद का विवाद इसी मानसिकता की उपज था। आरक्षण के नाम पर सडकों में खडे होकर लोगों से ,इन्हीं लोगों ने आत्मदाह करवाया ।गुर्जर आंदोलन और आजकल तेलंगाना राज्य की मांग को लेकर यही किया जा रहा है।यह अलग विषय है कि  कुछ ही समय में ये आंदोलनकारी विदूषक जैसे दिखने लगते हैं।संक्षेप में यह कहा जा सकता है कि इन कोशिशों से केवल नकारात्मक  हलचल होती है,और इन हलचलों से आंदोलन नहीं उपजते हैं। इसी कारण मन्दिर, मस्जिद विवाद अब आयोजकों के ही गले में हड्डी बन गया है। यही बात आरक्षण आंदोलन के पुरोधाओं पर भी लागू हो रही है।
   यह सवाल है कि आंदोलन कैसे पैदा हो? इसके लिए समस्याओं की तह तक जाना ही एकमात्र रास्ता है। लेकिन अधिकतर लोग यह नहीं करना चाहते है। जाहिर है कि महिला आंदोलनकारी भी इसी राह पर  हैं।8 मार्च के दिन खास किस्म के ताप तेवरों के साथ केवल रस्म अदायगी होने लगी है। इनका यह नजरिया बेहद खतरनाक है कि जहॉ पर समस्या दिखायी देती है वहॉ पर ही उसका समाधान किया जाए ।दरअसल महिलाओं के माध्यम से जो समस्यायें दिखायी देती हैं,वह समाज की समस्या है।केवल महिलाओं के नजरिए से इसको नहीं समझा जा सकता है।महिलाओं के जरिए समाज की ये बिमारियां प्रतिबिम्बत हो रही हैं। यह सत्य है। क्या एक महिला का उत्पीडन इस बात का प्रमाण नहीं है कि समाज में उत्पीडक मौजूद है।चाहे वह पुरूष हो या स्त्री इस बात से क्या साबित किया जाता है? वह उत्पीडक कहॉ से हवा और खाद,पानी पा रहा है इसको समझने और इसको ठीक करने के बदले लोग महिलावादी और पुरूषवादी खेमों में बॅटकर कभी खुलेआम और कभी छुपकर अपने दॉवपेंच चला रहे हैं। इनको निष्किय उत्पीडक नही ंतो और क्या कहा जा सकता है? जो समाज को खुलेआम गलत राह की ओर ले जाना चाहते है।

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