गुरुवार, 1 सितंबर 2011

बडे सवालों को छोटा कर रहे हैं राजनीतिज्ञ !

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                 तमिलनाडु विधान सभा में उन अभियुक्तों को क्षमादान देने का प्रस्ताव पारित किया गया है, जिन्हें राजीव हत्याकाण्ड से सम्बन्धित होने के कारण फॉसी की सजा सुनाई गयी है।फॉसी की सजा बहुत विवादास्पद है। इसके पक्ष और विपक्ष में अनेकों दलीलंे दी जाती हैं।यह उम्मीद बढती जा रही है कि निकट भविष्य में राज्य द्वारा सार्वजनिक रूप से न्याय के नाम पर किसी इंसान की हत्या करना मुश्किल होता जाएगा। दुनियां के 120 से अधिक देशों में जिस तरह इंसाफ के नाम पर इंसानी हत्या पर रोक लग चुकी है, उम्मीद की जाती है कि हमारे देश में यह जल्द ही लागू हो जाएगा। फिलहाल कुछ लोगों ने इसे बडा सवाल बना दिया है जबकि  इसे तुरन्त लागू किये जाने की जरूरत है। लेकिन इतने बडे सवालों को यदि गलत तरीके से उठाया  जाता रहा जैसा कि तमिलनाडु में हो रहा है तो नरबलियों के इस खेल को रोका जाना कठिन होता जाएगा, और यह चलता ही जाएगा। तमिलनाडु विधानसभा मंच का इस्तेमाल जिन लोगों ने अपनी राजनीति के लिए किया उससे जाहिर होता है कि इनकी समझ कितनी सतही और खतरनाक भी है। न्याय यदि किसी भी राज्य ,समुदाय,वर्ग,धर्म या समूहों की भावनाओं के आधार पर प्रभावित होने लगे तो वह न्याय कहॉ रह जाएगा ? जबकि यह मुद्दा  महत्वपूर्ण ही नहीं बल्कि सर्वोच्च प्राथमिकता का है कि कितना ही खतरनाक अपराधी हो उसे मारकर समाज को क्या मिलता है? हमारे छोटे-छोटे बच्चे यह नहीं समझ पाते हैं कि  अपराध और न्याय क्सा है ?लेकिन हमारी न्याय ,कानून व्यवस्था और राज्य सभी मिलकर बच्वों को यह दिखा रहे हैं कि इंसान को कानूनी तरीके से मारा भी जा सकता है।  हम कानूनी तरीके से लोगों को मारते हैं और आतंकवादी गैरकानूनी तरीके से लोगों को मारते हैं। इंसान को मारने में दोनों ही पक्षों की बडी दिलचस्पी है।यदि कानूनी प्रक्रिया पूरी की जा चुकी हो तो न्याय की बेदी पर इंसान के सिर काट कर चढाये जा सकते हैं लेकिन इससे न्याय को किस तरह की संतुष्टि मिलती है यह कहना कठिन है ।जब कोई इंसान महान काम करता है तो  हम किसी भी तरह से उसका श्रेय लेने को दौड पडते है,चाहे उससे हमारा कुछ भी प्रत्यक्ष या अप्रत्यक्ष लेना-देना हो या न होे। लेकिन कोई व्यक्ति यदि  परिस्थितिवश पतित हो गया तो हम उसकी जिम्मेदारी नहीं लेते हैं बल्कि जितनी जल्दी हो सके उसकी जान लेने को उतारू हो जाते हैं। जबकि जान लेने के आरोप पर ही हम भी  उसकी जान ही लेते है।
              उमर अब्दुल्लाह ने जो सवाल उठाया है वह लोगों के दोगलेपन पर सीधी चोट है। लेकिन उन्होने हमारी समाजिक सोच और न्याय के नाम पर हमारी क्रूर मानसिकता को यदि विषय बनाया होता तो इसके जल्द ही सकारात्मक परिणाम आते लेकिन यह बात भी उन्होंने  प्रतिक्रिया में कही जिससे कि एक बहुत ही संवेदनशील और महत्वपूर्ण विषय को राजनीतिक मुद्दा बनाकर भटकाया जा सकता है। चाहे जिस भी मंशा से यह सवाल उठाया हो लेकिन इस सवाल को लोग सही नजरिये से समझने की कोशिश करेंगें तो कम से कम हमारे देश में इंसानी बूचरखाने तो बंद ही हो जाएगें हमारे लिए यह महान उपलब्धि होगी।


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