मंगलवार, 29 नवंबर 2011

एक पंख से उडता विरोध का पंछी।

विदेशी कम्पनियों के लिए खुदरा क्षेत्र में पूरे दरवाजे खोलने और इसका विरोध करने पर अब बहस तेज हो गयी है, हांलाकि यह कोई नई घटना नहीं है यह तो केवल उस नीति का ही परिणाम है जो कि हमारे यहॉ 1991 से ही नई आर्थिक नीतियों के नाम से लागू हैं। जानकार लोगों का कहना है कि यह विरोध भी केवल विपक्ष की औपचारिकता निभाने जैसा ही है इसमें गम्भीरता कुछ भी नहीं है, यही विपक्ष यदि आज सत्ता में होता तो वह भी खुदरा क्षेत्र में इसी तरह प्रत्यक्ष विदेशी निवेश की नीति को लागू करता ,जो नीति अब  खुदरा क्षेत्र में दिखाई दे रही है , सार्वजनिक क्षेत्र से लेकर, कृषि और सरकारी क्षेत्र की नौकरियों में यह नीति पूरी निर्ममता से पहले ही लागू की जा चुकी है ,तथा कांग्रेस और भाजपा दोनों ने एक समान समर्पण और निष्ठा से इस नीति के पक्ष में काम किया है इसमें कोई शक नहीं है। सभी जानते हैं कि हमारे खुदरा व्यापारियों के लिए  बहुराष्ट्रीय कम्पनियों के मुकाबले टिके रहना किसी भी तरह सम्भव नहीं है, इसलिए यह तय है कि छोटे स्तर के व्यापारियों को इन नीतियों के कारण अब सडकों पर आना ही होगा। लेकिन जिस तरीके से इस नीति का विरोध किया जा रहा है,उसमें कुछ भी नया नहीं है। विरोध का कोई सार्थक तर्क भी नहीं है ,बिचौलिए किसानों के उत्पाद की कीमतें मनमाने तरीके से जिस तरह तय करते हैं और उपभोक्ताओं को महंगें दामों पर बेचते हैं उसका बचाव नहीं किया जा सकता है। यही बात सरकारी कर्मचारियों के खिलाफ भी सरकार ने कही जाती थी ,कि निजि क्षेत्र की तकनीक और कार्यसक्षम सेवायें सरकारी कर्मचारियों से बेहतर होंगी इसी के आधार पर सरकारी नौकरियों में रोक लगा दी गयी थी। हांलाकि आज भयानकतम होती जा रही बेरोजगारी इसी नीति का परिणाम है लेकिन भ्रष्ट,आलसी और पिछडीे तकनीक से काम करने वाले आरोपों में भी दम था। आज बेरोजगारी के कारण न सिर्फ बडी आबादी बल्कि पूरी बाजार व्यवस्था पर ही गम्भीर संकट आ गया है तब भी इस तथ्य को नजरअंदाज किया गया। आज यही खुदरा क्षेत्र में भी होने जा रहा है, इससे कोई भी इंकार नहीं कर सकता है।
      विदेशी कम्पनियांहमारे यहॉ खुदरा क्षेत्र के व्यापार में चल रही खुली लूट को लेकर चिंतित नहीं हैं, और ना ही वे उपभोक्ताओं के हितों की रक्षा के लिए यहॉ आने को जोड तो कर रही हैं, दरअसल वे इस लूट में हिस्सेदारी स ेअब संतुष्ट नहीं है बल्कि पूरी लूट खुद ही करना चाहती है।  इसलिए इस नीति का विरोध करने या समर्थन करने का हमारे सामने कोई विकल्प नहीं है। इसके विरोध का मतलब यह है कि स्वदेशी के नाम पर देशी लुटेरों का साथ दिया जाए या फिर स्पष्ट विदेशी हस्तक्षेप को पहले रोका जाए। दोनों ही बातों को एक साथ तय करने का अब सही समय आ गया है। इसके लिए किसानों को सहकारिता के आधार पर समिती बनाकर बाजार में सीधे प्रवेश का ढांचा उपलब्ध कराना एक उचित विकल्प है।ऐसे ही और भी विकल्पों पर विचार किया जाना चाहिए। जबकि विपक्षी दलों का यह आंदोलन किसी विकल्प पर बात नहीं करना चाहता है। इसी से इस आंदोलन की ईमानदारी पर सवाल उठता है। लोगों से संवाद किये बगैर ऐसे महत्वपूर्ण मुद्दों पर आंदोलन का हश्र एक पंख से उडने की कल्पना करने वालों जैसा ही होगा। 





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