शनिवार, 25 मार्च 2017

सिर्फ मार्केटिंग से समाधान नहीं हो सकेगा।

बीस-पच्चीस और तीस साल पहले माधुरी दीक्षित, श्रीदेवी और हेमा मालिनी जैसी अभिनेत्रियां हाथ में लक्स साबुन लेकर कहती थी कि यदि खूबसूरत होना है तो  है तो लक्स से नहाओ। जाहिर है कि इस काम के लिए कम्पनियां इन्हें उस समय करोडों रूपये देती थी। लेकिन आज यदि ये ही अभिनेत्रियां कहने लगें कि लक्स से नहाओगे तो हमारी तरह हो जाओगे तो वे ही कम्पनियां नाराज हो जाऐगी जो उस समय इन्हें करोडों रूपये देती थी। आज हालत यह हैं कि ऐसा ना कहने के लिए कम्पनी शायद इन्हें पैसा भी दे दे। साबुन, अभिनेत्रियां और ग्राहक सभी वही हैं लेकिन दौर बदल गया है तो समीकरण भी बदल गये। जिस तरह आज लक्स साबुन को नयी अभिनेत्रियों की जरूरत है। उसी तरह धर्म, राष्ट्र और राजनीति के प्रतीक बदल गये हैं मायने बदल गये हैं,नारे बदल गये हैं। अमेरिका में ट्रंप को राष्ट्रवादी और भारत में मोदी और आदित्यनाथ को सांस्कृतिक राष्ट्रवादी के रूप में जिस तरह प्रचारित किया जा रहा है। उससे सवाल उठना स्वाभाविक है कि संस्कृति, राष्ट्र और राजनीति के इन नये अवतारों से क्या उम्मीद की जानी चाहिए। कहीं ऐसा तो नहीं कि वैश्विक स्तर पर आज जिस तरह पिछले काफी समय से इस्लाम और आतंकवाद को पर्यायवाची साबित करने की लगातार कोशिशें हो रही है यह नया राष्ट्रवाद और सांस्कृतिक अभियान उसकी ही अगली कडी हो। अमेरिका के तत्कालीन राष्ट्रपति जार्ज बुश ने  सभ्यताओं के टकराव की जो दलीलें पेश की थी और उन दलीलों के आधार पर पूरे मध्यपूर्व को बर्बर तरीके से रौंद दिया। लगभग वैसा ही आभाष हमारे यहॉ भी देने की कोशिशें हो रही हों। तीन तलाक-बूचडखाने और तमाम ऐसे संकेत दिये जा रहे है जैसे कि हमारे यहॉ भी सभ्यताओं के टकराव की स्थिति है जिसे हल करने के लिए मोदी और योगी फार्मूला कारगर है। विरोधाभाष दुनियां, देश और समाजों में ही नहीं होते है बल्कि व्यक्ति भी विरोषाभाषों से भरा है। विरोधाभाष हल कैसेे किये जाते हैं यह सवाल महत्वपूर्ण है। कांग्रेस और सभी विपक्षी पार्टियां आज इसी कारण अपनी प्रासंगिकता खो चुकी हैं क्योंकि ये विरोधाषों को हल कर पाने में विफल रही हैं। मोदी ने नये ढंग से इन विरोधाभाषों को हवा दी है। ऐसा नहीं है कि वे समाधान लेकर आये हैं। वे नयी समस्या लेकर आये हैं ताकी मूल और गम्भीर समस्याओं को छोटा साबित किया जा सके।  



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