मंगलवार, 14 मार्च 2017

किसी तरह तो जमे बज्म मैकदे वालो।

वर्ष 1974 के जे0पी0 आंदोलन को आजादी के बाद सत्ता के खिलाफ पहला विद्रोह कहा जा सकता है। जे0पी0 ने लोगों के असंतोष को अनगढ तरीके से ही सही लेकिन एक पहचान दी। जाहिर है कि उनका प्रयोग बहुत अधकचरा था और जल्द ही अपनी परिणति को पहुॅचा। बाद का इन्दिरा काल हिचकोले खाते किसी तरह यात्रा कर ही रहा था कि इन्दिरा गॉधी की हत्या हो गयी। इसके बाद चाहे सहानुभूति की ही लहर हो राजीव को भी बडा समर्थन मिला, वे जल्द ही लोकप्रियता के शिखर पर पहुॅच भी गये।  जैसी छवि राजीव की थी लगता था कि वे लम्बी पारी खेलेगें, कमोवेश आज जिस तरह की उम्मीद कुछ लोग मोदी से भी करने लगे हैं, लेकिन राजीव जल्द ही धराशाही हो गये और उनके खिलाफ भी असंतोष पनपा इस असंतोष को वी0पी0 सिंह ने भुना लिया। फिर गठबंधन की सरकारों का दौर आया और माना जाने लगा कि गठबंधन सरकार ही देश की राजनीतिक नियति बन गयी है। इस अवधि में ही भाजपा ने भी छः साल शासन किया लेकिन कहीं से भी नहीं लगा कि भाजपा के पास कोई प्रभावी नजरिया है जो कि परम्परागत इस देश को दिशा दे पाने में सक्षम है। लिहाजा कांग्रेस को लगातार दो बार सत्ता में बैठने का मौका मिला। हम देखते हैं कि लोगों ने हर बार लम्बा इंतजार किया है और भरपूर धैर्य का परिचय दिया। मनमोहन सरकार ने अपने लगातार दो कार्यकालों में अपनी हर असफलता के लोगों से सहयोग मांगा और लोगों ने भरपूर सहयोग दिया भी। लेकिन मनमोहन सिंह और उनके गठबंधन सहयोगियों को जल्द ही समझ में आ गया कि एक काल्पनिक दुश्मन खडा करना जरूरी है। और अपनी असफलता के लिए साम्प्रदायिक ताकतों को जिम्मेदार ठहराना और लोगों का भयादोहन करना शुरू कर दिया। ये वही समाज था जिसने बॅटवारे के बाद से ही साम्प्रदायिकता को बुरी तरह नकार दिया इस पार्टी के जो भी उम्मीदवार चुनाव जीतते थे वे अपने व्यक्तित्व से चुनाव जीते लेकिन विचार के तौर पर यह बिल्कुल स्वीकार्य नहीं हो पायां। मनमोहन सरकार ने अपने स्वार्थ के लिए भाजपा को साम्प्रदायिकता का प्रतीक बना कर चर्चा में ला दिया। सोनियां गॉधी का चर्चित बयान जिसमें उन्होने मौत का सौदागर कहा इसकी छोटी सी मिशाल थी। दूसरी ओर से की गयी साम्प्रदायिकता जिसका नेतृत्व खुद सरकार करती आ रही थी उसे धर्मनिरपेक्षता कहकर थोपने और प्रतिष्ठित करने के तर्क दिये जाने लगे। जबकि इस धर्मनिरपेक्षता का वह मतलब बिल्कुल नहीं था जो हमारे समाज, धर्म और राजनीतिक जीवन का हिस्सा रही है थोडा कम परिपक्वता से ही सही  इसका प्रतिनिधित्व हम जवाहर लाल नेहरू की जीवन दृष्टी में पाते हैं। संक्षेप में इतना कहा जा सकता है कि लोगों ने थकहार कर इस बार सौदागर के हाथ ही सत्ता देने का फैसला कर लिया। और देखा कि ऐसा कुछ भी नहीं है। इस बीच केजरीवाल ने जनआंदोलन का नया मंच पेश करने और अपने को क्रान्तिकारी के रूप में स्थापित करने की कोशिश की, जनता ने मोदी और केजरीवाल दोनों को छप्परफाड समर्थन दिया। केजरी अपने तमाशे के अवसान की ओर बढते जा रहे हैं मोदी का तिलिस्म अभी कुछ दिन चलेगा। इसलिए नहीं कि वे कुछ कर सकते हैं केवल इसलिए कि लोगों की अपनी प्रतिष्ठा भी मोदी के साथ गिरवी है। उपर वाला ना करे किसी कारणवश मोदी राजनीति से हट जाते हैं तब देश की क्या दशा हो जाऐगी? एक आदमी पर इस कदर निर्भरता!  लोगों के पास अपना कोई विकल्प नहीं है  जिससे वे एक विपक्ष की तरह खडा की लेते यह आज देश की मजबूरी भी है और मोदी इस मजबूर की भरपूर लुत्फ उठा रहे हैं।
 

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