शनिवार, 1 अप्रैल 2017

सैक्युलर और साम्प्रदायिक एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं।

इतिहास में जब भी मोदी और योगी के इस चमत्कारिक दौर का जिक्र होगा तब अकबरूद्दीन ओबैशी के उस नफरत भरे भाषण पर भी इतिहासकार गौर फरमायेगें जिसमें उन्होेंने  हिन्दुओं के कत्लेआम की धमकी दी थी। जब लालकृष्ण आडवानी रथ यात्रा पर निकले थे तब लालू ने जिस तरह उनका रथ रोका इससे भी लोग आकलन करेगंे कि जो रथ रोका गया, वह वाकई रोका गया था या उसे  मंजिल तक पहुॅचाने की यह कोई तरकीब थी। कोई रथ यदि अपनी ही रफ्तार से चलता तब भी  उसे मंजिल तक का सफर तय करने में वक्त लगता लेकिन यहॉ तो लालू जैसों ने रथ में जैसे पंख ही लगा दिये! चाहे उनकी मंशा कुछ भी रही हो लेकिन परिणाम यही निकला कि रथ अपनी मंजिक तक पहुॅच गया है और इसमें  उन लोगों का योगदान स्पष्ट दिखता है जो कथित तौर पर रथ रोकने का दावा करते हुए दिख रहे थे।  आज मोदी के रूप में  इन ताकतों का अश्वमेध यज्ञ पूरा हो चुका है। संक्षेप में साम्प्रदायिक ताकतें उतनी मजबूत थी नहीं और ना ही हो सकती थी जितनी मजबूती से सैक्युलर इन्हें लाने पर आमादा थे। कहने का अभिप्राय यह है कि साम्प्रदायिक ताकतों के पास बेचने के लिए एक मन्दिर का सपना था, एक राष्ट्र का सपना है जिसमें वे जर्मनों की तरह श्रेष्ठ नस्ल अथवा धर्म वालों की तरह रहेगें और बाकी उस तरह रहेगें जैसे कि सैकडों साल पहले भटके हुए लोग गलत धर्म में चले गये थे वे या तो अब इनकी शरणागति हों या फिर कदम-कदम पर हिकारत और जलालत भरी जिन्दगी जिंए यह नफरत की राजनीति का नया तरीका है जिसे वर्षों की मेहनत से खोजा गया।  कहने को कुछ भी कहा जा सकता है राष्ट्र, संस्कृति, धर्म और देशभक्ति की बडी-बडी बातें की जा सकती हैं लेकिन राष्ट्र, संस्कृति, धर्म और देशभक्ति की कोई भी परिभाषा ये नहीं देते हैं। दूसरी ओर वे लोग हैं जिनके पास कोई सपना भी नहीं है वे केवल इनके विरोध पर जीने वाले पैरासाईट हैं जिन्हें कथित सैक्युलर कहा जा सकता है। इस देश का अपना एक सपना है जिसमें बेरोजगारी ना हो, किसी प्रकार का उत्पीडन ना हो, अभाव और तिरक्कार ना हा, सबको शिक्षा उपलब्ध हो, समाज रोगमुक्त हो लेकिन अब कोई यह बात नहीं करता ना तो कथित धार्मिक और ना ही कथित सैक्युलर। ये अन्योन्याश्रित हैं, एक दूसरे के एहसानमंद है हैं कि कैसे मिलजुल कर लोगों को बेवकूफ बनाये ही चले जा रहे हैं।



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