रविवार, 2 अप्रैल 2017

भक्ति सूत्र की ओट में मनोविकार।

भक्त का मन वाकई भावुक और निर्मल होता है, उसे दुनियांदारी से कोई मतलब नहीं उसका सीधा सम्बन्ध सम्बन्ध परमेश्वर से होता है। इसके विपरीत राजनीतिक भक्त बहुत चालाक होता है वह अपने परेमश्वर का इस्तेमाल अपनी जरूरतें को पूरा करने के लिए करता है जरूरत पडे तो परेमश्वर भी बदल लेता है हकीकत में वह अपना परेमश्वर खुद होता है जैसी उसकी जरूरत बाजार से वैसा परमेश्वर खरीद लाता है। चुनाव से पहले बहुत से टिकट के उम्मीदवारों ने अपन परमेश्वर बदल कर मोदी को अपना लिया और फिर से सत्ता में प्रतिष्ठित हो गये। अन्ना आंदोलन के बाद से सोशल मिडिया में भक्तों की बाढ सी आ गयी है। पहले इन्होनें केजरीवाल की भक्ति की, फिर मोदी की भक्ति का दौर चला जो गिरावट के बावजूद अभी भी फैशन में बना हुआ है अब यू0पी में योगी भक्ति का भी चलन दिखाई पडने लगा है। सवाल उठता है कि जो लोग केजरीवाल, मोदी, योगी या प्रियंका की भक्ति में लीन दिखाई पड रहे हैं इनका मकसद क्या है। क्या ये पिछलग्गू है या वाकई इन्हें  अपने इन कथित परमेश्वरों पर यकीन है कि ये देश और समाज का भला कर सकते हैं असल में चढते सूरज को सलाम करने वाली प्रवृत्ति के कारण ही इस तरह का रूझान दिखाई पडता है काफी हद तक मिडिया मैनेजमेंट और पेड सोशल मिडिया भी इसका कारण है लेकिन आदमी की जो मूल वृत्ति है उसे समझना जरूरी है आदमी चाहता है कि दूसरे मेरे कहे अनुसार चलें। ऐसा करने के लिए उसके पास कोई मंच नही होता है इसलिए वह किसी का पिछलग्गू बन जाता है चाहे वह आशाराम  और रामदेव ही क्यों ना हो। इससे एक प्रकार की प्रतिष्ठा उसे मिल जाती है और वह लोगों को समझाने की हैसियत पा जाता है। आजकल हर कोई दूसरे को समझाने में लगा है और इस तरह वह खुद भी आश्वस्त होना चाहता है कि मैं सही ही हॅू। अन्यथा मुझे कोई मुक्तिदाता मिल जाए तो फिर मैं दूसरो की फिक्र क्यों करूगा, पहले मैं मुक्त हो जाउॅगा लोग इस परिवर्तन को देखेगें और चाहें तो वे भी मुक्त हो जाए ना चाहें तो उनकी मर्जी लेकिन दूसरा मेरे कहे अनुसार चले यह जिद जिस तरह हिंसक होती जा रही है लगता नहीं कि यह मात्र भक्तिभाव है यह विकृत और हिंसक मनोविकार की तरह अधिक दिखाई पडता है।




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