गुरुवार, 13 अप्रैल 2017

समस्याओं पर पलती राजनीति।

जाति समस्या और इसके सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक विभाजन के मामले में पूरा पंडित और दलित दर्शन लगभग हास्यास्पद स्थिति में है, कम से कम राजनीतिक परिपेक्ष में दलित समस्या को जिस तरह पेश किया जाता है उसका कोई ओर छोर दिखाई नहीं पडता है। दोनों पक्ष जातिवाद को तथ्य माने बैठे हैं जबकि यह तथ्य नहीं परिणाम है। इस बात को पूरी चतुराई से छुपाने की कोशिश की जाती है कि हमारी राजनीतिक, सामाजिक, नैतिक और धार्मिक व्यवस्था की बुनियाद में भयानक गडबढ है जिसके कारण असमानता बनी हुई है और जातिवाद के तौर पर हमने उसे एक आधार  दे दिया। इस असमानता की हम बहुत दिनों से जातिवादी आधार पर  व्याख्या करते रहे हैं। यह अब सम्भव नहीं रह गया है। असमानता और भेदभाव के हजारों स्तर पैदा हो रहे हैं जो जातिवादी तर्क के एकदम उल्ट हैं आज एक कथित दलित बहुत मजबूत स्थिति में भी हो सकता है और एक कथित सवर्ण दयनीय दलित अवस्था में भी हो सकता है, इसके उलट राजनीतिक और स्वतंत्र विचारक यह साबित करने की कोशिश करते हैं कि जातिवाद बहुत पुरानी व्यवस्था है उसके आधार बहुत मजबूत है वे आज इसके तर्क देते हैं, वे समझ ही नहीं पाते कि इस तरह की जाति व्यवस्था का वर्तमान में कोई आधार नहीं है और ऐतिहासिक  तौर पर इसका कोई आधार रहा भी हो तो आज वह अप्रासंगिक हो गया है। जब हम आजादी की बात करते हैं तो उसका मतलब केवल अंग्रेजों के अधिपत्य से आजादी नहीं था बल्कि विचारों की हर प्रकार की जकडन से आजादी भी था। पुराने प्रसंगों के आधार पर आज के जातिवाद को जायज किसी भी हाल में नहीं ठहराया जा सकता है। लेकिन आज जातिवाद क्यों टिका है इस पर कोई बात नहीं की जाती है। क्योंकि जातिवाद का अब राजनीतिक हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है। यह स्पष्ट हो चुका है कि वर्तमान सामाजिक और आर्थिक असमानता को दूर करने में वर्तमान व्यवस्था असफल रही है इसलिए मण्डल कमीशन हो या फिर दूसरे प्रावधान के जरिए यह साबित किया जा रहा है कि  असमानता का कारण केवल जातिवाद है और इसे आरक्षण के जरिए हल किया जा रहा है यह सरासर भ्रामक और शरातपूर्ण राजनीति है। एक समय इसका भी अपना महत्व था लेकिन अब  इसे राजनीतिक हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया जा रहा है। यह व्यवस्था लोगों को रोजगार देने में असफल रही है इसलिए जातिवाद का इस्तेमाल करके लोगों को आपस में लडवाया जा रहा है, सामाजिक विद्वेष को हवा दे रही है। कहा जा सकता है कि आज जातिवाद इन राजनीतिक दलों की जरूरत बन चुका है वे इसे मिटाने में नही बल्कि इसका राजनीतिक दोहन करने में लगे हैं जातिवादी समीकरणों के आधार पर पार्टियां चुनाव में अपने उम्मीदवार खडे करती हैं और लोगों की जातिवादी भावनाओं को हवा देती है। इस भावना को भडकाती है। यह राजनीतिक दलों की समस्या नहीं है बल्कि उनके लिए एक राजनीतिक मुद्दा है जिसका भरपूर दोहन सवर्णवादी और दलितवादी दोनों ही कर रहे हैं।


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