सोमवार, 17 अप्रैल 2017

जमाने के खुदाओ, ज्यादा पत्थर ना चलाओ।

जानकार लोगों का कहना है कि दिल में बुरे खयाल आना बुरा नहीं है लेकिन बुरे खयालों से आदमी का हार जाना बहुत बुरा है। आज दुनियां में अधिकतर तनाव इसी बात के इर्द-गिर्द हैं कि अच्छाई के बारे में मेरी परिभाषा ही अन्तिम रूप से सही है, दूसरे को इसे मानना ही चाहिए। इसी तर्क के सहारे लोग अपनी कथित अच्छाइयों के नाम पर बुराईयों के साथ मजबूती से खडे हैं। हालांकि इसे बहस से तय नहीं किया जा सकता है कि कौन अच्छा है और कौन बुरा है।  इसे तय करने का तरीका दूसरा ही है। फिलहाल कश्मीर में एक पत्थरबाज को जीप से बॉधकर घुमाने का विषय चर्चा में है, हर मामले में सेना के साथ पूरी तरह खडे होने के बावजूद इस घटना के साथ खडा होना लोगों के बीच यदि चर्चा का विषय बन रहा है तो बहुत से लोगों को यह असहज भी  महसूस हो रहा है। अधिकतर लोगों का मानना है कि इससे सेना की प्रतिष्ठा बढी नहीं, यह घटना भारतीय सेना का प्रतिनिधित्व नहीं करती है इसे क्षणिक आवेग में स्थानीय स्तर पर लिये गये एक तात्कालिक  मामले से अधिक महत्व नहीं दिया जा सकता है और माना जाना चाहिए कि अब इस तरह की घटनायें फौज की तरह से नहीं होगी। सवाल पत्थरबाज की प्रतिष्ठा का नही है, इसमें भारतीय सेना की प्रतिष्ठा का प्रश्न सर्वोपरि है। हराये गये लोगों को सभी विजेता एक तरह से ही पराजित नहीं करते हैं, बदला लेना, बेईज्जत करना या किसी का तमाश बना देना बहुत ही हल्की मानसिकता का लक्षण हैं।  सिकन्दर एक तरह से पुरू को पराजित करता है और बुश दूसरी तरह से सद्दाम को पराजित करता है इसीलिए सिकन्दर, सिकन्दर है और बुश, बुश है।  अमेरिका ने भी वहॉ के मूल निवासियों का सफाया करके भी वहॉ सफलता हासिल की लेकिन भारतीय चिंतन इससे कभी भी सहमत नहीं हो सकता और यही हमारी खूबी है पॉच हजार साल के इतिहास का यही एक फूल है जिससे आज भी पूरा विश्व सुवाषित होता है  हमारे इतिहास में भी खामियंा रही है लेकिन इसका विश्लेषण बडे लोग कर सकते हैं मामूली आदमी छींटाकसी से ज्यादा कुछ कर भी नहीं सकता है। कहने का मतलब हमसे भी गलतियां हो सकती है उसे मानने में कोई हर्ज नहीं है और यही हमारे सही होने का सबसे बेहतर तरीका भी है कि हम बुराईयों  अथवा कमियों के साथ केवल इसलिए ही खडे नहीे हो जाते कि वह हमने की हैं बल्कि हमसे कोई गलती हुई है तो हम उस पर बात करने को बडा जरूरी समझते हैं। अकूत बलिदानों के बाद कश्मीर में लडाई  अब निर्णायक दौर में आ पहुॅची है, यह साबित हो चुका है कि पत्थरबाज किसी विचारधारा का प्रतिनिधित्व नहीं करते बल्कि भारतीय फौज के नरम रूख का फायदा उठा रहे है। आज कथित कश्मीर आंदोलन के पास अपना कोई चेहरा ही नहीं है एक प्रकार की अराजकता है जिसे फाईनल टच देकर कुशलता से समेटे जाने का वक्त आ चुका है इसलिए किसी भी किस्म की नासमझी से फायदा कम नुकसान ज्यादा होगा और  यह समस्या  समाधान में कुछ अतिरिक्त दिन ले लेगी। जिनकी समझ इतनी बचकानी है कि मुॅह पर कपडा लपेटकर ये आंदोलन कर रहे हैं जिस कथित विचारधारा ने इन्हें मुॅह दिखाने के काबिल नहीं छोडा उसकी ताकत कुछ भी नहीं है,  पैलैट गन के चार छर्रों से इनके चेहरे बेनकाब किये जा चुके हैं। दरअसल ये कठपुतलियां है इनकी डोर इनके आकाओं के हाथों में हैं।


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