रविवार, 16 अप्रैल 2017

तलाक देना बहादुरी नहीं है, कमजोरी है।

आजकल तीन तलाक का मुद्दा जिस तरह बहस के केन्द्र में है। कि मानों यह मुस्लिम समाज की ही समस्या है। हम विस्तार से इसे समझने की कोशिश करेगें तो यह किसी समुदाय या धर्म का मामला है ही नहीं कुछ लोग बेवजह ही इसे धार्मिक मुद्दा बनाकर साम्प्रदायिक माहौल खडा करने और सामाजिक धव्रीकरण करने की कोशिश कर रहे हैं। तलाक समस्या हर समुदाय में है और कमोवेश हर जोडा इससे प्रभावित हो भी सकता है। चाहे वह किसी भी जाति, धर्म और समुदाय से सम्बन्ध रखती हो इससे पीडित हर महिला है, उनके लिए यह पीडादायी समस्या इसलिए अधिक है क्योंकि तलाक के बाद वे आर्थिक रूप से बेसहारा हो जाती है  उनके लिए तलाक केवल पति से अलग होने का मामला भर नहीं रह जाता है बल्कि अस्तित्व का सवाल बन जाता है। फिल्मी अभिनेत्रियां अथवा ताकतवर महिलाओं को तलाक से जरा भी डर नहीं लगता है वे तो इसके लिए मानो तैयार ही रहती हैं यदि जरा भी बहाना मिले तो वे इसके जरिए पति से जिन्दगी भर की आर्थिक सुरक्षा करवा लेती हैं। उनकी जिन्दगी में दस बार भी तलाक हो जाए तो वे आर्थिक रूप से दस गुना सुरक्षित हो जाती हैं। लेकिन मुस्लिम समुदाय से बाहर की गरीब महिला भी तलाक से बुरी तरह खौफजदा रहती हैं। उसकी जिन्दगी में हर क्षण असुरक्षा है। गरीब महिला का  एकमात्र सहारा उनका कमाउ पति है यदि वह बीमार ही हो जाए तो पूरा परिवार ही तलाक से बदतर दशा में आ जाता है। मूलतः यह समस्या महिलाओं की आर्थिक असुरक्षा से जुडा सवाल है हमारा समाज यदि ऐसी व्यवस्था कर सके कि महिलायें भी आर्थिक रूप से सुरक्षित हो सकें तो फिर तलाक की तकलीफ कम की जा सकती है। जो लोग अंहकार में आकर  यूॅ ही पत्नियों को छोड देते हैं उन पर बीस साल के लिए विवाह करने अथवा विवाहेत्तर सम्बन्ध बनाने पर दण्ड का प्रावधान होना चाहिए यदि कोई ऐसा करता है तो उसे जेल भी भेजा जा सकता है। क्योंकि विवाह कोई मजाक नहीं एक पारिवारिक जिम्मेदारी के साथ-साथ सामाजिक, जिम्मेदारी भी है यदि वह अपनी जिम्मेदारी का? मखौल उडाता है तो समाज और कानून को अपनी जिम्मेदारी निभाते हुए उससे सम्बन्ध तय करने चाहिए। साथ ही विवाह के लिए भी कुछ मापदण्ड निर्धारित होने चाहिए जो उन पर खरा उतरे उसके विवाह को ही संरक्षित कानूनी मान्यता मिले अन्यथा कहीं भी किसी  से भी  नैन मिले और विवाह कर लिया, दूसरे दिन तलाक दे दिया यह पशुओं में ठीक हो सकता है लेकिन सभ्य समाज में यह गलत परिणाम देगा, विवाह धर्म का मामला कम  इंसानियत और नैतिकता का मामला अधिक है। यह भविष्य के समाज का प्राथमिक स्कूल भी है जहॉ हम अपने बच्चों को तैयार करके समाज सेवा के लिए भेजते हैं। विवाह कुत्ते बिल्ली का खेल नहीं है यह बडा सामाजिक और नैतिक दायित्व भी है उसे गरिमापूर्ण बनाये बिना हम बेहतर समाज नहीं बना सकेगें। इसलिए इसे किसी जाति धर्म के दायरे से बाहर निकाल कर बडे परिपेक्ष में देख जाना चाहिए।



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