शुक्रवार, 7 अप्रैल 2017

धर्म, संस्कृति और राष्ट्र क्या खाक समझ में आता है?


सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से गौरक्षक दल के बारे में जो सवाल पूछा है वह सरकार को असहज स्थिति में डाल सकता है। इसी तरह का सवाल सुप्रीम कोर्ट ने आदिवासी सुरक्षा दल के नाम से सक्रिय संगठन सलवा जुडूम के बारे में भी पूछा था और अंततः उसे प्रतिबन्धित कर दिया गया। कथित गौरक्षा दल ने कहीं भी गौ रक्षा की हो ऐसा  इस पूरे अभियान में दिखाई नहीं दिया अलबत्ता रक्षा के नाम पर लोगों पर हमला जरूर किया गया और कुछ मामलों में जान भी ले ली गयी, इससे गौरक्षा कैसे हो पायेगी यह समझना और समझाये जाने के इंतजार में शायद सुप्रीम कोर्ट भी है इसी लिए कोर्ट की ओर से सरकार को नोटिस जारी किया गया है। इस मामले में सरकार बचाव की मुद्रा में है क्योंकि इन हमलावर गतिविधियों को सरकार का ना सिर्फ समर्थन है बल्कि काफी हद तक संरक्षण भी है। इन्हें गौरक्षक दल कहना भी ठीक नहीं है, दरअसल ये झगडा दल हैं, कहीं ये गाय के नाम पर झगडा करते हैं, कहीं ये युवक-युवतियों की मित्रता के नाम पर झगडा दल हैं, कहीं ये लव जिहाद के नाम पर झगडा करते हैं, कहीं दूसरे बहाने से झगडा करते हैं, ये रक्षा किसी की भी नहीं करते केवल खूबसूरत नामों से लोगों पर हमला करते हैं। चाहे ध्येय कितना ही ठीक हो लेकिन अराजक भीड को इस तरह खुला छोड देना वाकई गम्भीर चिंता की बात तो है ही। ये सडक पर ही सुनवाई करते हैं और दण्ड भी मौके पर ही तत्काल दे देते हैं। आम धारणा है कि ये लोग एक समुदाय को निशाने पर लेकर ही अपनी कार्यवाही चलाते हैं इसलिए काफी हद तक जितना इनका विरोध होना चाहिए उतना ही उनका समर्थन भी दिखाई पडता है यदि इसे समर्थन ना भी माना जाए तो कम से कम  इनकी गतिविधियों पर लोगों ने खामोशी तो अख्तियार कर ही रखी है। बर्तोल्त ब्रैख्त की कविता कभी वे उनके लिए आये और मैं कुछ नहीं बोला, इस माहौल में काफी समझ में आती है। लोग इस तरह भी सोच सकते हैं यह सोचना काफी कठिन है। पाकिस्तान में धर्म की बेअदबी के नाम पर भीड किसी को भी मार सकती है ऐसा वहॉ बाकायदा कानून है। लगभग वैसी ही मानसिकता हमारे यहॉ भी स्थापित करने की कोशिशें लगातार हो रहीे हैं  धर्म, संस्कृति, नियम, कायदा और कानून को हम भीड के हाथांे जाते हुए देख रहें हैं। सवाल उठता है कि इसमें सरकारों का क्या हित है? दरअसल यह सरकारों की मजबूरी है कि वह उन लम्पटों को भी सत्ता में हिस्सेदारी दें जिनके कंधो पर चढकर ये सत्ता तक पहुॅचे हैं। रात में टार्च लेकर ट्रकों की तलाशी लेने में एक प्रकार का सत्ता सुख तो है ही। संस्कृति के नाम पर जब आप किसी की पिटाई सडकों पर खुलेआम करने लगते हैं तो उसमें एक रोमांच की अनुभूति तो होती ही है। इनकी हैसियत के अनुसार इनका इतना ही हिस्सा बनता है। ये कोई इतने असरकार तो हैं नहीं कि मोदी से मंत्रालय मांगने लगें, जिनकी हैसियत थी उन्हें मोदी जी ने गोआ और मणिपुर में मंत्रालय भी दिये अपनी पार्टी में प्रदेश प्रमुख भी बनाया, असम में तो मुख्यमंत्री तक बनाया लेकिन ये बेचारे, लेकिन विकृत मानसिकता के लोग इतना ही कर सकते हैं और इतना भी नहीं समझते हैं कि ये इस्तेमाल हो रहे हैं ऐसे लोगों को धर्म, संस्कृति और राष्ट्र क्या खाक समझ में आ सकेगा?


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