शनिवार, 8 अप्रैल 2017

ससंद की और अम्मा की कैंटीनें।

अम्मा कैंटीन और संसद कैंटीन में समानता होते हुए भी इनमें बुनियादी भिन्नता है, दोनों का स्वाद अलग, अंदाज अलग और माहौल अलग है। एक माल-ए-मुफ्त है, लजीज है, एफरात है  दूसरा वोट, रहम और अनुदान जैसी तमाम मजबूरियों का फल है।  अम्मा कैंटीन की मूल अवधारणा पर जिस तरह अनेकों राज्य जिस तेजी से योजनायें अमल में ला रहे हैं उससे सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या ये सभी राज्य इसकी मूल अवधारणा से सहमत है। इस पर बात किये जाने की तत्काल जरूरत है। क्या यह वाकई लोककल्याणकारी नजरिया है कि इस तरह कम से कम कीमत पर लोगों का पेट भरा जा सकता है। यह विचार कुछ आगे बढे तो बात यहॉ तक जा सकती है कि  आदमी को भोजन की भी कोई जरूरत नहीं उसे नियमित अंतराल में कुछ विटामिन की गोलियां, कैप्सूल और इंजैक्शन दिये जा सकते हैं जिससे वह ताकत और स्फूर्ती महसूस कर सके और जरूरी काम कर सके। पूछा जा सकता है कि किसी भी सभ्य समाज में भोजन क्या पेट भरने का ही नाम है या यह हमारी व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक और मानवीय प्रक्रिया का अनिवार्य और महत्वपूर्ण हिस्सा है। हम पैट्रौल की टंकी नहीिं है कि हमारे लिए भोजन केवल यांत्रिक जरूरत जैसा हो। एक आदमी रोजी-रोटी की तलाश में कोई भी काम करता हो उसमें उसकी सारी संवेदनायें विकसित, पुष्पित और पल्लवित होती हैं। घरेलू सामान खरीदने से लेकर हमारे परिवार के सामने भोजन की थाली के रूप में आने तक उसका एक विज्ञान है और विकासक्रम है। इसे कमतर नहीं किया जा सकता है और ना ही इसे नजरअंदाज किया जा सकता है। कल को सरकारें नोटबंदी की तरह रातों-रात कैंटीन बंदी का फरमान लागू कर दे ंतो आदमी कहॉ जाऐगा? कम से कम भोजन की गरिमा को इस तरह कमतर नहीं किया जाना चाहिए। हर आदमी को ऐसा माहौल मिलना ही चाहिए कि वह भोजन के मामले में इस तरह से मजबूर ना हो कि कम पैसा होने के कारण वह खास प्रक्रिया से भोजन लेने को मजबूर है। मोदी जी ने कहा था कि हम लोगों को इस काबिल बनाऐगें कि वे सब्सिडी लेने की मजबूरी से बाहर आयें और आर्थिक रूप से सशक्त हों। लेकिन कैंटीन की यह भोजन व्यवस्था साबित करती है कि अब राजनीतिज्ञों के पास ऐसा कोई विचार नहीं रह गया है कि लोग को आर्थिक रूप से इतना मजबूत कर सके कि वह लोगों को भोज पर आमंत्रित कर सकें। अब सब्सिडी के भोजन पर निर्भरता का दौर बढता जा रहा है। यह कमजोर होते भारत का लक्षण है बावजूद इसके कि  बाहर से भारत को चमकता हुआ दिखाया भी जाता है लेकिन बडी संख्या में राज्य इस योजना को जिस शान से लागू कर रहे हैं लगता है कि जैसे यह महान विचारक्रान्ति हो। इसे पूरे परिपेक्ष में गहराई से समझे जाने की जरूरत है। भीख में मिला भोजन कितना ही पौष्टिक क्यों ना हो उसकी तासीर जहरीली ही होती है और अपनी कमाई की रूखी-सूखी रोटी भी आत्मिक उर्जा से आदमी को नहला देती है। इसलिए रोटी के सवाल को इतने सतही ढंग से हल करने की कोशिश करना ठीक नहीं लगता है।



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