शनिवार, 29 अप्रैल 2017

तलाक को राष्ट्रीय समस्या क्यों बनाया जा रहा है?

पाकिस्तान में स्कूली बच्चों की किताबों में हिन्दुओं के बारे में जो पहचान बनाई गयी है उसमें हिन्दू को एक प्रकार के कार्टून की तरह दर्शाया जाता है, जिसकी लम्बी से चोटी होती है और माथे पर तिलक लगाया होता है।  ताकी बालमन ही भारतीयों के प्रति एक प्रकार की नफरत और हिकारत बोई जा सके और उन्हें बताया जा सके कि भारतीय बहुत ही खराब लोग हैं इसलिए हमें मजबूरन उनसे अलग देश बनाना पडा। इस तरह के विकास क्रम में जो बात निश्चित हो जाती है वह है नफरत और हिकारत से भरे व्यक्तियों का समाज। हो सकता है कि कल को अपने अनुभवों के आधार पर उन बच्चों को लगने लगे कि भारतीयों के बारे में जो छवि उसे बताई गयी थी वह सही नहीं है सभी भारतीय वैसे नहीं होते हैं जैसा उसकी किताबों में बताया गया था। पाकिस्तानियों की यह मजबूरी समझ में आती है कि देश विभाजन की  अपनी गल्ती को किसी भी तरह से जस्टिफाई करें और इस अपराधबोध से मुक्त हों कि उन्होनें जिस तरह इतिहास की दिशा को गलत मोड दिया था, इसी वजह से वे हर रोज नया अपराध करने को मजबूर हैं उन्हंे नई पीढी के मन को लगातार जहरीला बनाना ही होगा अन्यथा  कल को वे पूछेगें कि विभाजन की वजह क्या थी? यदि भारतीय बहुत ही बुरे हैं तो उनकी हालत हमसे बेहतर कैसे है?  संक्षेप में इतना ही कहा जा सकता है कि नफरत की कोई भी शक्ल बनाना गलत है चाहे हम हिन्दू से नफरत करें, मुसलमान से नफरत करें, सवर्ण से नफरत करें दलित से नफरत करें या कथित महिलावादियों की तरह पुरूषों से नफरत करें यह तरीका बहुत ही आपत्तिजनक है। बात यही तक सिमित नहीं है अक्सर हम अत्याचारियों की कोई शक्ल निर्धारित कर देते हैं यह नजरिया और पैमाना सही नहीं है।  जैसे कि सास ही बहू का उत्पीडन करती है, या घरेलू हिंसा में महिला ही पीडिता होती है या मुसलमानों में ही महिलायें तलाक से पीडित हैं।  हर अपराध व्यक्तित्व और परिस्थितियों से जुडा मामला है और व्यकितत्व बिल्कुल निजी बात है। इसके लिए किसी मजहब, जाति समुदाय अथवा लिगं को दोषी ठहरा देना गलत है। इसलिए हर अपराध के लिए व्यक्ति उसमें व्यक्तिगत तौर पर जिम्मेदार है। किसी धर्म, समुदाय, जाति अथवा लिगं के आधार पर हम कोई तस्वीर बनाने की कोशिश करें कि इस तरह के लोग ही दोषपूर्ण होते हैं तो यह ठीक नहीं है। तलाक को कोई मान्यता देता है तो यह उसकी समस्या है हमें इसे सामाजिक तौर पर देखना चाहिए। समाज में जब तक  केवल पुरूष ही आर्थिक गतिविधियों का केन्द्र रहेगा तब तक यह समस्या हल नहीं हो सकेगी यह आर्थिक असुरक्षा का मामला है, वैवाहिक सम्बन्धों के संवेदनशील पहलुओं का नहीं। फिल्मी दुनियां में हर रोज तलाक होते हैं वहॉ भी इसे आगे बढने के अवसरो में लोग इस्तेमाल कर लेते हैं वहॉ महिलायें तलाक के नाम पर खुलकर सौदेबाजी करती है और आर्थिक तौर पर पहले से अधिक सुरक्षित हो जाती हैं। उन तलाकों पर इस तरह चटखारेदार चर्चा नहीं होती है और ना ही मोदी और अमित साह के कोई बयान आते हैं। किसी भी बात का तमाशा बनाना गलत है इस मामले में राजनीतिक छिछोरापन करना और भी गलत है। यदि ऐसा समाज और व्यवस्था बनाई जा सके जहॉ परिवार के पालन पोषण की जिम्मेदारी व्यक्तिगत मामला होने के साथ-साथ एक सामाजिक और धार्मिक उत्तरदायित्व भी हो तब ऐसा समस्यायें पैदा ही नहीं होंगी। और कोई परिवार बिखरे तो लोग टिप्पणी करने की बजाए उनके दुख-दर्द में भागीदार हो मददगार हो तो समाधान के लिए राजनीति की गुजाईश ही नहीं रहेगी।



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