सैनिकों के शवों के साथ की गयी अभद्रता की बहस को पीछे छोडते हुए हमें इस बात का जवाब तलाशना होगा कि बिना युद्ध अथवा गृहयुद्ध के इतने सैनिक लगातार कैसे मारे जा रहे हैं? शवों के साथ की गयी अभद्रता का सवाल अपनी जगह पर है लेकिन सैनिकों के साथ कश्मीर में किस तरह का बर्ताव किया जा रहा है, इसका वीडियो सारी दुनियां ने देखा है, क्या हम अपने सैनिकों के सम्मान का ख्याल रखते हैं? यह बडा सवाल है यदि कोई कहे कि हमारे सैनिक बहुत प्रतिष्ठित स्थिति में हैं तो फिर कश्मीर में जिन लम्पटों ने सैनिकों के साथ हाथापाई की उसे हमने कैसे बर्दाश्त कर लिया? क्या हम शवों को लेकर ही संवेदनशील हैं, सैनिकों के प्रति हमारी कोई संवेदना नहीं है। इसका दोष हम पाकिस्तान पर नहीं डाल सकते हैं और ना ही उसके लिए आतंकवादियों को जिम्मेदार ठहरा सकते हैं उसके लिए पूरी तरह हमारा प्रशासन जिम्मेदार है चाहे कश्मीर प्रशासन हो या दिल्ली प्रशासन हो। केन्द्र और राज्य की पार्टियों के बीच गठबन्धन होने से तो स्थिति और भी स्पष्ट है कि सरकार इसके लिए पूरी तरह जिम्मेदार है। पिछले ही दिनों में माओवादियों ने हमारे 26 सुरक्षाकर्मियों को मारा लेकिन इन कत्लों को हम रूटिन प्रक्रिया माने बैठे हैं, नेता कहते हैं कि सैनिक शहीद होने के लिए ही होते हैं। बडा सवाल यह है कि हर मुश्किल वक्त में सैनिक अकेला क्यों पड जाता है चाहे सेना के भीतर भ्रष्टाचार के कारण रोटी ना मिलने के सवाल हो या फिर साहब का कुत्ता ना घुमाने के कारण तनाव से ग्रसित होकर सैनिक द्वारा की गयी कथित आत्महत्या हो। पूरे तंत्र ने मिलकर तेजबहादुर के साथ जो बर्ताव किया वह कम अपमानजनक नहीं है। इसलिए शवों का सवाल अपनी जगह ठीक है लेकिन हम अपने सैनिक को कितनी प्रतिष्ठा दे पायें हैं यह सवाल सबसे उपर है। उन्माद से भरी इस बहस के पूरे पाखण्ड पर बात की जानी चाहिए। कहीं भी सैनिक की हत्या की जाती है पहला सवाल यही है कि हम किस तरह से रिएक्ट करते हैं, सैनिक की हालत पर बात किये बगैर इस पूरे प्रकरण पर बात नहीं हो सकती है। जिन माओवादियों ने 26 सुरक्षाकर्मियों को मारा उन्होंने सम्मानपूर्वक ये हत्यायें की होंगी ऐसा मानना ठीक नहीं है। ना ही हैवानों से यह उम्मीद की जा सकती है कि वे मृत देह के साथ अपनी नफरत का इजहार नहीं करेगें। उनकी नफरत का हिसाब हम तब चुका सकते हैं जब हमने कभी अपने सैनिकों को प्यार किया हो।
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