शुक्रवार, 5 मई 2017

मौत लिखने के बाद ही कलम टूटती है काश! पहले टूट सकें।

हत्यारांे और बलात्कारियों को फॉसी दो-फॉसी दो या एक के बदले दस पाकिस्तानियों के सिर लाओ का नारा देने वालों की मानसिकता एक बार फिर से तृप्त हुई लगती है। सुप्रीम कोर्ट ने निर्भया बलात्कार और हत्याकांड को वीभत्स और दुर्लभतम मानकर चार अपराधियों को मार डालने का हुक्म सुनाया है। लोग उसी तरह न्याय की जय-जयकार कर रहे हैं जैसे आतंकवादी  कहीं भी आतंक मचाकर और किसी की हत्या करके अल्ला हू अकबर कहता है। कोई भीड किसी अखलाक को मारकर गौमाता की दुहाई देती है। यह सब गलत है और न्याय तो कतई नहीं है हमें इस मानसिकता को समझना चाहिए। आजकल एक के बदले सौ पाकिस्तानियों के सिर लाने का नारा फिजाओं में हैं। लगता है कि जैसे कुछ लोग फौज को केवल बूचडों का गिरोह या फिर शूटर साबित करने पर तुले हैं जो इनके कहने पर यॅू ही हत्या कर देगें। कश्मीर में सैनिक पूरे गोला बारूद से लैस होने के बावजूद लम्पटों से अपमानित होते रहे उसका विडियो  लोगों ने भी देखा ही होगा, यदि  इनके अनुसार सेना काम करे तो जहॉ भी सेना कार्यवाही करे वहॉ हर जगह लाशें ही लाशें नजर आनी चाहिए, इन्होंने हमारी फौज को बूचडों का संगठन समझ लिया है। इसी तरह दो चार अपराधियों को मार कर कोई समाज बलात्कार को समाप्त कर देगा यह स्थापित करना सिर्फ पागलपन ही है। बहुत से ऐसे समाज हैं जहॉ बलात्कार होते ही नहीं हैं हमें उनके अनुभवों पर कुछ बात करनी चाहिए।  इस पूरी घटना को हम न्यायपालिका और कानून की मर्यादा से परे रखकर देखें तो यह केजरीवाल मानसिकता से ज्यादा समझदार मानसिकता नहीं है। जब केजरीवाल कह रहे थे कि बसों में मार्शल तैनात करके और सी0सी0टी0वी0 लगाकर बलात्कार रोके जाऐगें, लोग इस कदर अभिभूत हो गये कि 70 में से 67 सीटों पर केजरीवाल जीते गये। लेकिन हाथ कंगन को आरसी क्या पढे-लिखे को फरसी क्या? बलात्कार हर रोज बढते ही जा रहे हैं और वीभत्सता भी बढती ही जा रही है, हर हत्या और हर बलात्कार वीभत्स ही होता है कोई सभ्य हत्या नहीं होती और ना ही किसी बलात्कार को सम्मानपूर्वक, सभ्यतापूर्ण किया गया बलात्कार ठहराया जा सकता है। इसलिए दिल्ली की सडक पर कोई घटना हो जाए तो वह केवल  तथाकथित संवेदनशील समाज की शान में गुस्ताखी के कारण बर्दाश्त से बाहर और मैनपुरी जैसे सुदूर इलाके की मासूम बच्चियों की मौत  जैसी घटना को गुमनामी कहना हमारा अपना ही पाखण्ड साबित करेगा। जिनको हत्या करने में मजा आता हो वे निर्भया कांड जैसे मुुद्दों का सिर्फ बहाने की तरह इस्तेमाल करते हैं जैसे लोग धर्म का नारा देकर दूसरे को मार डलना तर्कपूर्ण ठहराने की कोशिश करते है। पवित्र किताबों के अपमान पर लोगों को मार डालते हैं । अवैध बूचडखाने बंद होना आजकल राजनीतिक नारा बन गया है फिर  इस तरह के फैसलों का कोई मतलब नहीं जिनके लिए इंसानी कत्लों के वैध बूचडखाने बनाने पडें। आप कुछ भी कह सकते हैं लेकिन  इंसान को मार डालना सजा नहीं है। वह साफ तौर आपके द्वारा किया गया कत्ल है जिसे संवैधानिक साबित किया जाता है इस तरह इस कत्ल में  अनचाहे और अनजाने ही पूरे समाज की भागीदारी तय हो जाती है क्योंकि यह न्याय के नाम पर किया जाता है दूसरे कत्ल को अन्याय ठहराया भी जा सकता है लेकिन यह कत्ल न्यायपूर्ण ठहराया जा चुका है जो किसी भी तरह से न्याय नहीं हो सकता है। कत्ल को न्याय के साथ जोडना गलत है यह आदिम और बर्बर समाज का न्या हो सकता है इक्कीसवीं सदी में इस तरह से की गयी हत्याओं को भारत में न्याय नहीं ठहराया जाना चाहिए।  

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