बुधवार, 17 मई 2017

यह दौर जनता के चुनाव का नहीं, अपनी जनता चुनने का है।

एक फिल्मी गीत की सुन्दर पंक्तियां हैं जिसमें कहा गया है कि ”जीते हैं किसी ने देश तो क्या हमने तो दिलों को जीता है“ कवि की इस नजर और भावना से शायद ही  किसी को कोई एतराज हो सकता है। लेकिन कविता को छोड दिया जाए तो जानकार लोग इस नजरिए से सहमत नहीं हैं। चाहे देश जीते जांए या दिल जीते जांए, दोनों ही हिंसक, क्रूर और षडयंत्रकारी मानसिकता हैं। आप किसी का दिल भी जीतें तो आप अन्ततः उसके साथ वैसा ही  व्यवहार करेंगेें जैसे तैमूर और नादिरशाह करते रहे हैं, हो सकता है कि आप यह अत्याचार सुन्दरतम तरीकों से करें लेकिन विजेता और पराजितों के सम्बन्धों की यही नियति है इसका एक भी अपवाद नहीं है। आप पुरू की तरह सिकन्दर के बराबर भी बिठा दिये जाऐं तो भी पराजित मन की पीडा बना ही रहती है और सिकन्दरांे का विजेता भाव आपको ही कदम पर अपमानित और पददलित करता ही रहेगा चाहे लोग व्याख्या कुछ भी कर लें। आज तक ऐसी कोई जीत नही हुई है जिसमें दूसरा पराजित ना हुआ हो। जीतने की चाहत में ही छल-कपट, षडयंत्र और हिंसा निहित है, बामकसद यदि हम किसी का दिल जीतने का खयाल भी करें तो यह बडा पाप है। क्योंकि जिसे हम जीतना चाहते हैं उसमें उसकी हार की कामना हमें  पहले करनी ही पडती है जब तक वह हारेगा नही ंतब तक हम जीत नहीं सकते, यह विरोधाभाष अन्ततः हमें आक्रान्ता, बर्बर और क्रूर बना ही देता है। अपने देश के राजनीतिक दलों की चुनावी जीत को हम इसी नजरिए से देख सकते हैं, आजकल राजनीतिक दल जिस तरह चुनाव जीतने  की कोशिश कर रहे हैं  वह उन्हें आक्रान्ता, बर्बर और षडयन्त्रकारी साबित कर रहा है। विपक्षियों को धन, पद का लालच देकर उनका दिल जीता जाता है, लोगों से झूठे वायदे करके उनको बहकाया जाता है, कुत्सा प्रचार के जरिए गुमराह करके लोगों के कारवां को लूटा जाता है। यह सारा उपक्रम इसलिए नहीं किया जा रहा है कि  इस देश से गरीबी, बेरोजगारी, बीमारी, शिक्षा, सामाजिक तनाव की समस्या को हल किया जा सके, इस तरह की तमाम समस्याओं के खिलाफ कोई विजय अभियान नहीं चलाया जा रहा है। इस सब में देश और इसकी समस्यायें बहुत पीछे छूटती जा रही हैं  अब पार्टियां और उनके नेता देश से भी ज्यादा महत्वपूर्ण  माने जाने लगे हैं। कांग्रेस मुक्त, सपा मुक्त , बसपा  मुक्त से लेकर वे तमाम मुद्दे उठाये जा रहे हैं जिनसे सामाजिक तनाव बढता रहे। इनके विजयी अभियान का अन्तिम लक्ष्य क्या है यह साफ नहीं है। कभी केजरीवाल, कभी मोदी और कभी अमरिंदर चुनाव जीत जाते हैं लेकिन इन्हें जनता चुनती है अथवा ये अपने हिस्से की जनता को चुन लेते हैं यह बहस और शोध का विषय है।



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