रविवार, 2 जुलाई 2017

अखलाक और नारंग पर बोलने का मजा है, लाश पर बोलना कठिन है।

एक बार किसी रेडियो कार्यक्रम में किरण बेदी ने कहा था कि ”अपराधी को मौत की सजा ज्यादा मानवीय ढंग से देनी चाहिए” मौत की सजा मानवीय भी हो सकती है यह तो किरण बेदी ही समझा सकती हैं। भीड द्वारा इन दिनों सडको और घरों में घुसकर की जा रही हत्यायें भी इसी तरह का मुद्दा बनती जा रही है।  हत्याओं पर लगभग सभी एकमत हैं कि ये तो होती ही रहती हैं एतराज सिर्फ भीड को लेकर है। वह भीड हिन्दुओं की है या मुसलमानों की असल बहस और दिलचस्पी इसी के इर्द-गिर्द है। इन  हत्याओं पर जिस तरह चिंता जाहिर की जा रही है वह भी काफी दिलचस्प मामला है। भीड यदि दंगा करे, लूटपाट करे, बलात्कार करे तो इन्हें कभी कोई एतराज नहीं रहा है ऐसा हमारे समाज में खुलेआम होता रहा है। कश्मीर में भीड जब ऐसा करती है तो यही लोग उसे आजादी की लडाई कह देते हैं। दार्जिलिंग में भीड दंगा करती है तो उसे अलग राज्य की मांग कह देते हैं, तेलगांना राज्य की मांग में भी यही किया गया। अयोध्या में भी कथित श्रद्धालु भीड जब यही काम करती है तो उसे आस्था का मामला कह देते हैं और परोक्ष रूप से उसका समर्थन करते हैं। कहने का मतलब कि जो हिंसा इन्हें राजनीतिक फायदा पहुॅचाती है वह अच्छी है और जिससे इनकी पहचान कम होती है वह हिंसा बुरी होती है यह कैसा तर्क है? भीड ना भी मारे लेकिन कत्ल तो होते ही हैं। अखलाक हो या डा0 नारंग इन्हें चाहे भीड ने मारा या अकेले ने मारा इनकी जान गयी मुख्य चिंता यही होनी चाहिए लेकिन हम भीड को कैसे देख रहे हैं  हम इस पर बात करते हैं।  किसी को प्रेम सम्बन्ध में मारा गया, किसी को दहेज के कारण मारा गया, किसी को पारिवारिक या सामाजिक प्रतिष्ठा के नाम पर मारा गया। या किसी को लूट-पाट या लेन-देन के लिए मारा गया।  असल बात यह है कि इनमें से हम कुछ हत्याओं के तर्क से खुद भी सहमत होते हैं और कुछ तर्कों से असहमत होते हैं। असल बात हमारे मन के तर्क हैं। हत्या पर किसी को कभी ना एतराज रहा और ना एतराज है। जब तक इस मामले में हम साफ नहीं होते तब तक अधूरी बहस  हमारी हिंसक मानसिकता को और भी बढाऐगी इसके अलावा हम किसी समाधान पर नहीं पहुॅच सकते हैं। वह कातिल जो लोगों की जान ले रहा है वह हम सबका साझा दुश्मन है चाहे वह अकेला है या किसी मजहब या जाति की झंडाबरदारी कर रहा है इससे कोई फर्क नहीं पडता है। लेकिन हम भी कम हिंसक राजनीति नहीं करते हैं हम कातिलों की पहचान पर खामोश हो जाते हैं या उस तरह पहचान करते हें जिससे जाति मजहब का मामला उलझ सके। हम सिर्फ लाश पर नहीं बोलते है बल्कि उसकी जाति, मजहब और दूसरे बातों पर बोलते हैं लाश पर खामोश रहते हैं।  ऐसा इसलिए भी है क्योंकि हम भी भीतर से कमोवेश कातिल ही हैं, इसलिए कातिलों से हमें एक प्रकार का बिरादराना सम्बन्ध महसूस होता है। हम हत्या पर कभी भी नहीं बोले बल्कि हमने हर बार मारे गये आदमी के बहाने नई हिंसा का माहौल बनाया हैं, इस तरह कुछ और लाशें बिछाने की भूमिका तैयार की है।  जिस दिन हम अपने भीतर के इस कातिल को पहचान लेगंे तो बाहर के कातिल टिक नहीं सकते हैं चाहे कितनी ही बडी भीड की शक्लों में आयें।


गुरुवार, 25 मई 2017

अपनी राजनीति के लिए भारतीय फौज की तस्वीर बिगाडने वाले।

   भारतीय सेना की जीप से बॅधें एक युवक की सोशल मिडिया में जारी तस्वीरों और उसके बाद किन्हीं परेश रावलों, किन्हीं सोनू निगमांे, किन्हीं अभिजीतों और किन्हीं लम्पट राजनीतिज्ञों के ट्विटों से ऐसा साबित करने की कोशिशें की जा रही हैं कि मानों हमारी सेना का यही वास्तविक चेहरा है और यह सेना में यह मौजूदा बदलाव इन राजनीतिज्ञों के ईशारों पर हो रहा है। मेजर गोगोई ने एक तात्कालिक कदम उठाया इसकी विवेचना सार्वजनिक तौर पर बिल्कुल नहीं की जा सकती है यह सेना का अंदरूनी मामला है। जब तेजबहादुर की शिकायत सामने आई तब भी देश ने उसे सेना का अंदरूनी मामला माना गया। उस समय किसी नेता ने उन्हें पद्म विभूषण देने की सिफारिश नहीं की और ना ही जॉच से पहले उनका सम्मान करने या दूसरे किस्म की भडकाउ बातें की। मेजर गोगोई के कंधे पर इस तरह बंदूक रखकर जो लोग अपनी राजनीति चमकाने की कोशिश कर रहे हैं वे सभी बदमाश हैं। भारतीय सेना की छवि इस तरह बदली नहीं जा सकती है और अपनी राजनीति के लिए जो तत्व ऐसा करने की जुर्रत कर रहे हैं हमें उनसे सावधान रहना चाहिए।   हम जानते हैं कि सुरक्षा बलों में कोई बुनियादी बदलाव नहीं किया जा रहा है। जिसका दावा 56 इंच के छाती वाले करते रहे। आज भी माओवादी हमारे सुरक्षा बलों को मार रहे हैं, कश्मीर में हालात खराब ही हैं ,पाकिस्तान को शॉल भेजने से लेकर उनके यहॉ बिरयानी खाने तक सारी बाजारू हरकतें कर ली गयी, इससे स्थिति में कोई बदलाव नहीं आया। जवानों के लिए बुनियादी सुविधाओं में पर्याप्त सुधार किये जाने की जरूरत है। नौसेना के 27 जवान अब तक लापता है सरकार उस पर कुछ नहीं बोल रही है एक लडाकू जहाज दो पाईलैटों सहित चीन की सीमा पर खो गया है इस मामले में सरकार ही असहाय दिख रही है। देश में बलात्कार की घटनायें लगातार बढती ही जा रही हैं,  भीड किसी को भी मार  रही है, नौकरियों में लगातार गिरावट आ रही है, विदेशी निवेश की हालत निराशाजनक है। मोदी की नोटबंदी की हकीकत उजागर हो गयी है। योग से लेकर गीता बॉटनें के मोदी के तमाम शोशे अब सुर्खियां नहीं बटोर पा रहे हैं। देश में बुनियादी तौर पर कुछ भी नहीं बदला है सिर्फ मोदी की जयजयकार के अलावा । हालात हर रोज बदतर होते जा रहे हैं। देश की सुरक्षा के मामले में भी यही स्थिति है सुरक्षा बल की अपनी चुनौतियों के बावजूद शानदार काम कर रहे हैं हमें पूरे सुरक्षा बलों को समग्रता में सम्मानित करना होगा और यह काम उनकी जरूरतें पूरी करके ही उन्हें सम्मानित किया जा सकता है। तेजबहादुर का सवाल बना रहे और हम किसी चुनिदां मामले को उठाकर वाहवाही करने लगें यह मूर्खता है जो देर सवेर उजागर हो ही जाऐगी। सेना बहुत बडी बात है उसे इन परेश रावलों, सोनू निगमांे, अभिजीतों और लम्पट राजनीतिज्ञों  के सर्टिफिकेटों की जरूरत नहीं है।

बुधवार, 17 मई 2017

यह दौर जनता के चुनाव का नहीं, अपनी जनता चुनने का है।

एक फिल्मी गीत की सुन्दर पंक्तियां हैं जिसमें कहा गया है कि ”जीते हैं किसी ने देश तो क्या हमने तो दिलों को जीता है“ कवि की इस नजर और भावना से शायद ही  किसी को कोई एतराज हो सकता है। लेकिन कविता को छोड दिया जाए तो जानकार लोग इस नजरिए से सहमत नहीं हैं। चाहे देश जीते जांए या दिल जीते जांए, दोनों ही हिंसक, क्रूर और षडयंत्रकारी मानसिकता हैं। आप किसी का दिल भी जीतें तो आप अन्ततः उसके साथ वैसा ही  व्यवहार करेंगेें जैसे तैमूर और नादिरशाह करते रहे हैं, हो सकता है कि आप यह अत्याचार सुन्दरतम तरीकों से करें लेकिन विजेता और पराजितों के सम्बन्धों की यही नियति है इसका एक भी अपवाद नहीं है। आप पुरू की तरह सिकन्दर के बराबर भी बिठा दिये जाऐं तो भी पराजित मन की पीडा बना ही रहती है और सिकन्दरांे का विजेता भाव आपको ही कदम पर अपमानित और पददलित करता ही रहेगा चाहे लोग व्याख्या कुछ भी कर लें। आज तक ऐसी कोई जीत नही हुई है जिसमें दूसरा पराजित ना हुआ हो। जीतने की चाहत में ही छल-कपट, षडयंत्र और हिंसा निहित है, बामकसद यदि हम किसी का दिल जीतने का खयाल भी करें तो यह बडा पाप है। क्योंकि जिसे हम जीतना चाहते हैं उसमें उसकी हार की कामना हमें  पहले करनी ही पडती है जब तक वह हारेगा नही ंतब तक हम जीत नहीं सकते, यह विरोधाभाष अन्ततः हमें आक्रान्ता, बर्बर और क्रूर बना ही देता है। अपने देश के राजनीतिक दलों की चुनावी जीत को हम इसी नजरिए से देख सकते हैं, आजकल राजनीतिक दल जिस तरह चुनाव जीतने  की कोशिश कर रहे हैं  वह उन्हें आक्रान्ता, बर्बर और षडयन्त्रकारी साबित कर रहा है। विपक्षियों को धन, पद का लालच देकर उनका दिल जीता जाता है, लोगों से झूठे वायदे करके उनको बहकाया जाता है, कुत्सा प्रचार के जरिए गुमराह करके लोगों के कारवां को लूटा जाता है। यह सारा उपक्रम इसलिए नहीं किया जा रहा है कि  इस देश से गरीबी, बेरोजगारी, बीमारी, शिक्षा, सामाजिक तनाव की समस्या को हल किया जा सके, इस तरह की तमाम समस्याओं के खिलाफ कोई विजय अभियान नहीं चलाया जा रहा है। इस सब में देश और इसकी समस्यायें बहुत पीछे छूटती जा रही हैं  अब पार्टियां और उनके नेता देश से भी ज्यादा महत्वपूर्ण  माने जाने लगे हैं। कांग्रेस मुक्त, सपा मुक्त , बसपा  मुक्त से लेकर वे तमाम मुद्दे उठाये जा रहे हैं जिनसे सामाजिक तनाव बढता रहे। इनके विजयी अभियान का अन्तिम लक्ष्य क्या है यह साफ नहीं है। कभी केजरीवाल, कभी मोदी और कभी अमरिंदर चुनाव जीत जाते हैं लेकिन इन्हें जनता चुनती है अथवा ये अपने हिस्से की जनता को चुन लेते हैं यह बहस और शोध का विषय है।



मंगलवार, 16 मई 2017

कर्णन का उबाल और बबाल।

जस्टिस कर्णन प्रकरण से भारतीय न्याय व्यवस्था के भीतर चल रहे गम्भीर विकारों की झलक मिलती है, कहा जा सकता है कि इसने पूरी न्याय व्यवस्था को चौराहे पर ला दिया है। बहुत से मामलों में न्यायालय स्वतः संज्ञान लेते हुए अपनी पहलकदमी से संकटों के निबटारे की पहल करता रहा है हांलाकि कुछ हलकों में इसे अतिवादी न्याययिक सक्रियता तक कहा गया। लेकिन लोगों का इसको ना सिर्फ समर्थन मिला बल्कि इसे इस व्यवस्था पर अन्तिम भरोसा तक कहा गया।  अब सवाल यह खडा होता है कि हमारी व्यवस्था में कोई तरीका है जो इस तरह के मामले का स्वतः संज्ञान लेने की हैसियत रखता है, और इस तरह के संकटों का निबटारा कर सकता है।  ऐसा लम्बे समय तक नहीं हो सकता है कि न्यायिक विशेषाधिकार इस हद तक चले जांए कि देश में न्यायिक अराजकता जैसे हालात हो जाएं और देश तमाशा देखता रहे यह विकट स्थिति है। संविधान की प्रभुसत्ता और न्याय की व्यवस्था का यह मतलब नहीं कि इस नाम पर ही अराजकता हो जाए। हमारे यहॉ लोकमान्यता रही है कि न्यायालय व्यवस्था से उपर की बात है उसे यह हैसियत संविधान प्रदत्त नहीं है, संविधान के अनुसार तो न्यायपालिका व्यवस्था का ही एक अंग है। इसलिए जानकार लोग इस तरह के मामलों से ज्यादा चिंतित नहीं होते हैं क्योंकि वे जानते हैं कि जितना भ्रष्टाचार व्यवस्था में होगा उससे अधिक भ्रष्टाचार न्यायपालिका में होगा क्योंकि इसे लोगों का विश्वास हासिल है, भ्रष्ट तत्व यहॉ अधिक सुरक्षा महसूस कर सकते हैं।  जिस तरह आई0पी0एल0 खिलाडी मुॅह मांगी कीमत पर बिकते हैं वैसे ही वकील भी 30 लाख रूपये प्रति पेशी का बिल आराम से भेजते हैं। इन्हें कोई शर्म ही नहीं।  एक प्रकार से न्याय की मंडी लगी है  जिसके पास पैसा है वह अलग अलग तरीकों से न्याय को प्रभावित करने की तरकीबें करता है और सफल भी रहता है। यह सारा फ्रस्टेशन इसी तरह की घटनाओं मे  उभर कर आता है।  यकीनन आज पूरा तंत्र संविधान की प्रस्तावना की मूल भावना के खिलाफ काम कर रहा है। इस सवालों को नजरअंदाज करना लगातार घातक होता जाऐगा। कर्णन प्रकरण व्यक्तिओं के बीच सत्ता संघर्ष के तौर पर नहीं समझा जा सकता है बल्कि  इस समूची व्यवस्था के पतन के तौर पर देखा जा सकता है और माना जा सकता है। कि इस उदाहरण ने लोगों का वह विश्वास भी तोडा है कि न्यायपालिका व्यवस्था से उपर है। जैसा तमाशा कार्यपालिका और व्यवस्थापिका में अक्सर देखा जाता है वैसा ही इस मामले में भी दिखाई पड रहा है, यह त्रासदी है।


शुक्रवार, 5 मई 2017

मौत लिखने के बाद ही कलम टूटती है काश! पहले टूट सकें।

हत्यारांे और बलात्कारियों को फॉसी दो-फॉसी दो या एक के बदले दस पाकिस्तानियों के सिर लाओ का नारा देने वालों की मानसिकता एक बार फिर से तृप्त हुई लगती है। सुप्रीम कोर्ट ने निर्भया बलात्कार और हत्याकांड को वीभत्स और दुर्लभतम मानकर चार अपराधियों को मार डालने का हुक्म सुनाया है। लोग उसी तरह न्याय की जय-जयकार कर रहे हैं जैसे आतंकवादी  कहीं भी आतंक मचाकर और किसी की हत्या करके अल्ला हू अकबर कहता है। कोई भीड किसी अखलाक को मारकर गौमाता की दुहाई देती है। यह सब गलत है और न्याय तो कतई नहीं है हमें इस मानसिकता को समझना चाहिए। आजकल एक के बदले सौ पाकिस्तानियों के सिर लाने का नारा फिजाओं में हैं। लगता है कि जैसे कुछ लोग फौज को केवल बूचडों का गिरोह या फिर शूटर साबित करने पर तुले हैं जो इनके कहने पर यॅू ही हत्या कर देगें। कश्मीर में सैनिक पूरे गोला बारूद से लैस होने के बावजूद लम्पटों से अपमानित होते रहे उसका विडियो  लोगों ने भी देखा ही होगा, यदि  इनके अनुसार सेना काम करे तो जहॉ भी सेना कार्यवाही करे वहॉ हर जगह लाशें ही लाशें नजर आनी चाहिए, इन्होंने हमारी फौज को बूचडों का संगठन समझ लिया है। इसी तरह दो चार अपराधियों को मार कर कोई समाज बलात्कार को समाप्त कर देगा यह स्थापित करना सिर्फ पागलपन ही है। बहुत से ऐसे समाज हैं जहॉ बलात्कार होते ही नहीं हैं हमें उनके अनुभवों पर कुछ बात करनी चाहिए।  इस पूरी घटना को हम न्यायपालिका और कानून की मर्यादा से परे रखकर देखें तो यह केजरीवाल मानसिकता से ज्यादा समझदार मानसिकता नहीं है। जब केजरीवाल कह रहे थे कि बसों में मार्शल तैनात करके और सी0सी0टी0वी0 लगाकर बलात्कार रोके जाऐगें, लोग इस कदर अभिभूत हो गये कि 70 में से 67 सीटों पर केजरीवाल जीते गये। लेकिन हाथ कंगन को आरसी क्या पढे-लिखे को फरसी क्या? बलात्कार हर रोज बढते ही जा रहे हैं और वीभत्सता भी बढती ही जा रही है, हर हत्या और हर बलात्कार वीभत्स ही होता है कोई सभ्य हत्या नहीं होती और ना ही किसी बलात्कार को सम्मानपूर्वक, सभ्यतापूर्ण किया गया बलात्कार ठहराया जा सकता है। इसलिए दिल्ली की सडक पर कोई घटना हो जाए तो वह केवल  तथाकथित संवेदनशील समाज की शान में गुस्ताखी के कारण बर्दाश्त से बाहर और मैनपुरी जैसे सुदूर इलाके की मासूम बच्चियों की मौत  जैसी घटना को गुमनामी कहना हमारा अपना ही पाखण्ड साबित करेगा। जिनको हत्या करने में मजा आता हो वे निर्भया कांड जैसे मुुद्दों का सिर्फ बहाने की तरह इस्तेमाल करते हैं जैसे लोग धर्म का नारा देकर दूसरे को मार डलना तर्कपूर्ण ठहराने की कोशिश करते है। पवित्र किताबों के अपमान पर लोगों को मार डालते हैं । अवैध बूचडखाने बंद होना आजकल राजनीतिक नारा बन गया है फिर  इस तरह के फैसलों का कोई मतलब नहीं जिनके लिए इंसानी कत्लों के वैध बूचडखाने बनाने पडें। आप कुछ भी कह सकते हैं लेकिन  इंसान को मार डालना सजा नहीं है। वह साफ तौर आपके द्वारा किया गया कत्ल है जिसे संवैधानिक साबित किया जाता है इस तरह इस कत्ल में  अनचाहे और अनजाने ही पूरे समाज की भागीदारी तय हो जाती है क्योंकि यह न्याय के नाम पर किया जाता है दूसरे कत्ल को अन्याय ठहराया भी जा सकता है लेकिन यह कत्ल न्यायपूर्ण ठहराया जा चुका है जो किसी भी तरह से न्याय नहीं हो सकता है। कत्ल को न्याय के साथ जोडना गलत है यह आदिम और बर्बर समाज का न्या हो सकता है इक्कीसवीं सदी में इस तरह से की गयी हत्याओं को भारत में न्याय नहीं ठहराया जाना चाहिए।  

बुधवार, 3 मई 2017

सैनिकों की हत्या कर लो, लेकिन थोडा इज्जत से....।

सैनिकों के शवों के साथ की गयी अभद्रता की बहस को पीछे छोडते हुए हमें इस बात का जवाब तलाशना होगा कि बिना युद्ध अथवा गृहयुद्ध के  इतने सैनिक लगातार कैसे मारे जा रहे हैं? शवों के साथ की गयी अभद्रता का सवाल अपनी जगह पर है लेकिन सैनिकों के साथ कश्मीर में किस तरह का बर्ताव किया जा रहा है, इसका वीडियो सारी दुनियां ने देखा है, क्या हम अपने सैनिकों के सम्मान का ख्याल रखते हैं? यह बडा सवाल है यदि कोई कहे कि हमारे सैनिक बहुत प्रतिष्ठित स्थिति में हैं तो फिर कश्मीर में जिन लम्पटों ने सैनिकों के साथ हाथापाई की उसे हमने कैसे बर्दाश्त कर लिया?  क्या हम शवों को लेकर ही संवेदनशील हैं, सैनिकों के प्रति हमारी कोई संवेदना नहीं है। इसका दोष हम पाकिस्तान पर नहीं डाल सकते हैं और ना ही उसके लिए आतंकवादियों को जिम्मेदार ठहरा सकते हैं उसके लिए पूरी तरह हमारा प्रशासन जिम्मेदार है चाहे कश्मीर प्रशासन हो या दिल्ली प्रशासन हो। केन्द्र और राज्य की पार्टियों के बीच गठबन्धन होने से तो स्थिति और भी स्पष्ट है कि सरकार इसके लिए पूरी तरह जिम्मेदार है। पिछले ही दिनों में माओवादियों ने हमारे 26 सुरक्षाकर्मियों को मारा लेकिन इन कत्लों को हम रूटिन प्रक्रिया माने बैठे हैं, नेता कहते हैं कि सैनिक शहीद होने के लिए ही होते हैं। बडा सवाल यह है कि हर मुश्किल वक्त में सैनिक अकेला क्यों पड जाता है चाहे सेना के भीतर भ्रष्टाचार के कारण रोटी ना मिलने के सवाल हो या फिर साहब का कुत्ता ना घुमाने के कारण तनाव से ग्रसित होकर सैनिक द्वारा की गयी कथित आत्महत्या हो। पूरे तंत्र ने मिलकर तेजबहादुर के साथ जो बर्ताव किया वह कम अपमानजनक नहीं है। इसलिए शवों का सवाल अपनी जगह ठीक है लेकिन हम अपने सैनिक को कितनी प्रतिष्ठा दे पायें हैं यह सवाल सबसे उपर है। उन्माद से भरी इस बहस के पूरे पाखण्ड पर बात की जानी चाहिए। कहीं भी सैनिक की हत्या की जाती है पहला सवाल यही है कि हम किस तरह से रिएक्ट करते हैं, सैनिक की हालत पर बात किये बगैर इस पूरे प्रकरण पर बात नहीं हो सकती है। जिन माओवादियों ने 26 सुरक्षाकर्मियों को मारा  उन्होंने सम्मानपूर्वक ये हत्यायें की होंगी ऐसा मानना ठीक नहीं है। ना ही हैवानों से यह उम्मीद की जा सकती है कि वे मृत देह के साथ अपनी नफरत का इजहार नहीं करेगें। उनकी नफरत का हिसाब हम तब चुका सकते हैं जब हमने कभी अपने सैनिकों को प्यार किया हो।


शनिवार, 29 अप्रैल 2017

तलाक को राष्ट्रीय समस्या क्यों बनाया जा रहा है?

पाकिस्तान में स्कूली बच्चों की किताबों में हिन्दुओं के बारे में जो पहचान बनाई गयी है उसमें हिन्दू को एक प्रकार के कार्टून की तरह दर्शाया जाता है, जिसकी लम्बी से चोटी होती है और माथे पर तिलक लगाया होता है।  ताकी बालमन ही भारतीयों के प्रति एक प्रकार की नफरत और हिकारत बोई जा सके और उन्हें बताया जा सके कि भारतीय बहुत ही खराब लोग हैं इसलिए हमें मजबूरन उनसे अलग देश बनाना पडा। इस तरह के विकास क्रम में जो बात निश्चित हो जाती है वह है नफरत और हिकारत से भरे व्यक्तियों का समाज। हो सकता है कि कल को अपने अनुभवों के आधार पर उन बच्चों को लगने लगे कि भारतीयों के बारे में जो छवि उसे बताई गयी थी वह सही नहीं है सभी भारतीय वैसे नहीं होते हैं जैसा उसकी किताबों में बताया गया था। पाकिस्तानियों की यह मजबूरी समझ में आती है कि देश विभाजन की  अपनी गल्ती को किसी भी तरह से जस्टिफाई करें और इस अपराधबोध से मुक्त हों कि उन्होनें जिस तरह इतिहास की दिशा को गलत मोड दिया था, इसी वजह से वे हर रोज नया अपराध करने को मजबूर हैं उन्हंे नई पीढी के मन को लगातार जहरीला बनाना ही होगा अन्यथा  कल को वे पूछेगें कि विभाजन की वजह क्या थी? यदि भारतीय बहुत ही बुरे हैं तो उनकी हालत हमसे बेहतर कैसे है?  संक्षेप में इतना ही कहा जा सकता है कि नफरत की कोई भी शक्ल बनाना गलत है चाहे हम हिन्दू से नफरत करें, मुसलमान से नफरत करें, सवर्ण से नफरत करें दलित से नफरत करें या कथित महिलावादियों की तरह पुरूषों से नफरत करें यह तरीका बहुत ही आपत्तिजनक है। बात यही तक सिमित नहीं है अक्सर हम अत्याचारियों की कोई शक्ल निर्धारित कर देते हैं यह नजरिया और पैमाना सही नहीं है।  जैसे कि सास ही बहू का उत्पीडन करती है, या घरेलू हिंसा में महिला ही पीडिता होती है या मुसलमानों में ही महिलायें तलाक से पीडित हैं।  हर अपराध व्यक्तित्व और परिस्थितियों से जुडा मामला है और व्यकितत्व बिल्कुल निजी बात है। इसके लिए किसी मजहब, जाति समुदाय अथवा लिगं को दोषी ठहरा देना गलत है। इसलिए हर अपराध के लिए व्यक्ति उसमें व्यक्तिगत तौर पर जिम्मेदार है। किसी धर्म, समुदाय, जाति अथवा लिगं के आधार पर हम कोई तस्वीर बनाने की कोशिश करें कि इस तरह के लोग ही दोषपूर्ण होते हैं तो यह ठीक नहीं है। तलाक को कोई मान्यता देता है तो यह उसकी समस्या है हमें इसे सामाजिक तौर पर देखना चाहिए। समाज में जब तक  केवल पुरूष ही आर्थिक गतिविधियों का केन्द्र रहेगा तब तक यह समस्या हल नहीं हो सकेगी यह आर्थिक असुरक्षा का मामला है, वैवाहिक सम्बन्धों के संवेदनशील पहलुओं का नहीं। फिल्मी दुनियां में हर रोज तलाक होते हैं वहॉ भी इसे आगे बढने के अवसरो में लोग इस्तेमाल कर लेते हैं वहॉ महिलायें तलाक के नाम पर खुलकर सौदेबाजी करती है और आर्थिक तौर पर पहले से अधिक सुरक्षित हो जाती हैं। उन तलाकों पर इस तरह चटखारेदार चर्चा नहीं होती है और ना ही मोदी और अमित साह के कोई बयान आते हैं। किसी भी बात का तमाशा बनाना गलत है इस मामले में राजनीतिक छिछोरापन करना और भी गलत है। यदि ऐसा समाज और व्यवस्था बनाई जा सके जहॉ परिवार के पालन पोषण की जिम्मेदारी व्यक्तिगत मामला होने के साथ-साथ एक सामाजिक और धार्मिक उत्तरदायित्व भी हो तब ऐसा समस्यायें पैदा ही नहीं होंगी। और कोई परिवार बिखरे तो लोग टिप्पणी करने की बजाए उनके दुख-दर्द में भागीदार हो मददगार हो तो समाधान के लिए राजनीति की गुजाईश ही नहीं रहेगी।



धीरे-धीरे बोल, जशोदा बेन सुन ना लें।

तलाक का मुद्दा इन दिनों राष्ट्रीय समस्या के तौर पर उठाया जा  रहा है कुछ जगहों पर तो तलाक को कश्मीर और माओवाद से भी ज्वलतं और गम्भीर समस्या के तौर पर पेश किया जा रहा है। लेकिन इसका मतलब ये नहीं है कि यह बहस महिलाओं की सामाजिक ,आर्थिक स्थिति पर वाकई कोई गम्भीर चिंतन के नजरिए से उठाई जा रही हो। यह सिर्फ साम्प्रदायिक छींटाकशी स्तर की राजनीति है, और बहाना महिलाओं की समस्या के तौर पर दिखाया जा रहा है। जैसे इन लोगों ने राम मन्दिर अभियान को जिस सफलता से सामाजिक तनाव का प्रतीक बना दिया और इसकी सफलता से उत्साहित होकर दूसरे पक्ष ने गुजरात दंगों पर इस तरह राजनीति की जिससे कि उन्हें खास पहचान मिले और सामाजिक धुव्रीकरण को तेज किया जा सके लेकिन इनका पासा उल्टा पडा और इसका भरपूर फायदा मोदी ने उठाया। आज लगभग पूरी राजनीति इसी तरह के दॉव-पेंचों  तक सिमट कर रह गयी है। गौमंास से लेकर एन्टी रोमियो अभियान तक की जितनी भी गतिविधियां हैं वे सब सामाजिक धुव्रीकरण की मंशा से की जा रही हैं ताकी राजनीतिक मकसद के लिए इनका लाभ उठाया जा सके। तीन तलाक का मुद्दा उठाने के पीछे यही मकसद है। हैरत की बात यह है कि आधी आबादी की झंडाबरदारी करने वाली बडी बिन्दी ब्रिगेड इस समय खामोश है। जब एक राजनीतिक दल कथित तौर पर महिला उत्पीडन का मुद्दा उठा रहा है तो महिलाओं में हिन्दू मुसलमान का बफटवारा कैसे किया जा सकता है? यदि ऐसा हो सकता है तो फिर आधी आबादी आंदोलन का सिद्धान्त का आधार क्या रह जाऐगा? यह सवाल कोई नहीं पूछ रहा है। केजरीवाल ने जिस समय बसों में मार्शल, हर जगह पर सी0सी0टी0वी0 लगाने  मुफ्त वाई-फाई की बातें कही थी, तब भी लोग उन्माद में ऐसे ही पागल थे जैसे कि आज मोदी के पीछे पागल हैं। मोदी कब्रिस्तान और शमशान का मुद्दा उठाते हैं तो सरकारें उलट जाती हैं इससे यह साबित नहीं होता है कि शमशान और कब्रिस्तान को लेकर कोई समस्या है, इससे केवल इतना ही साबित होता है कि लोगों का झुकाव उन्मादी राजनीति की ओर बढता जा रहा है। उन्माद इतना आकर्षक और असरकारक कैसे होने लगता है यह अलग से एक दिलचस्प बहस है। चाहे दो साल पहले का केजरीवाल का उन्माद हो जिसमें मोदी समेत पूरी कांग्रेस बह गई थी या फिर मोदी  उन्माद हो जिसमें केजरीवाल बह गये इस तरह की राजनीति की उम्र कोई लम्बी नहीं होती। अभी लोगों को उसी तरह लग रहा है कि मोदी सारी समस्या हल कर देगें जैसे केजरीवाल के समर्थकों को लगता था कि एक पढा-लिखा अदमी भ्रष्टाचार मिटाने राजनीति में आ गया है जो कहता था कि कीचड की सफाई करने के लिए कीचड में उतरना (राजनीतिक पार्टी बनाकर चुनाव लडना) जरूरी है। वैसे ही मोदी  महिलाओं की समस्या पर कितने चिंतित दिखने की कोशिश कर रहे है।  कहीं जशोदाबेन ने सुन लिया तो!


बुधवार, 26 अप्रैल 2017

भक्त हारे भी और जीते भी।

एम0सी0डी0 चुनावों में आप पार्टी की पराजय और भाजपा की विजय पर बहस लगातार जारी है, हालांकि आप पार्टी की हार और भाजपा की जीत ये दो अलग-अलग मुद्दे हैं। फिर भी भाजपा वाले इस परिणाम को मोदी लहर के लगातार बने रहने के रूप में प्रचारित कर रहे हैं और केजरीवाल की दो साल पहले हैरतअंगेज और चमत्कृत कर देने वाली जीत को इस समय यह कहकर छोटा साबित करने में लगे हैं कि मोदी इफैक्ट ने आखिरकार दिल्ली वालों की उस चूक को सुधार दिया है। लेकिन यह सवाल फिर भी लोगों के मन में अपनी जगह बनाये हुए है कि दो साल पहले दिल्ली वालों ने केजरीवाल पर भरोसा ज्यादा कर लिया गया था या केजरीवाल ने ज्यादा चतुराई से लोगों को बहका लिया। क्या आज मोदी उसी तरह ज्यादा चतुराई से लोगों को बहकाने में सफल हो रहे हैं? जिस तरह दिल्ली में केजरीवाल की लहर चली थी उसके मुकाबले में मोदी आज भी कहीं नहीं ठहरते हैं। उस समय पूरी दुनियां ने दिल्ली विधानसभा चुनावों पर अलग-अलग तरह से प्रतिक्रियायें दी थी। अभूतपूर्व और चकित कर देनी वाली आप पार्टी की उस लोकप्रियता को आज दो साल भी नहीं हुए कि अपनी अलोकप्रियता के कारण यही पार्टी आज एक मजाक का विषय बन चुकी है और उस समय के कथित क्रान्तिकारी हीरो केजरीवाल आज मसखरे और मूढमति साबित हो गये हैं। ऐसे में सवाल उठना स्वाभाविक ही है कि जिस आप पार्टी ने कांग्रेस और भाजपा को लगभग धूल में मिलाते हुए तहलका मचा दिया था उनकी लोकप्रियता की उम्र इतनी कम कैसे रही। ऐसे में यह सवाल लोगों में उत्सुकता पैदा कर रहा है कि मोदी लहर की अनुमानित उम्र कितनी होगी। मोदी और केजरीवाल ने अपनी वाचालता, सोशल मिडिया और दूसरे समूहों के साथ जोड-तोड के जरिए अचानक लोकप्रियता पायी है और सत्ता के शीर्ष तक पहुॅचे भी हैं, ये लोग शीर्ष पर कितनी देर टिके रह सकेगें इसका अनुमान लगाना कठिन है। लेकिन इतना तो तय है कि इनकी लोकप्रियता की अवधि लगातार कम होती जाऐगी। हालांकि मोदी भक्त अभी कल्पना भी नहीं कर सकते है कि कुछ ही दिनों में मोदी का भी यही हाल हो सकता है जो आज केजरी का हुआ है। दो साल पहले केजरीभक्त  ऐसी कल्पना भी नहीं कर सकते थे कि इतनी जल्दी इनका इतना बुरा हाल हो सकता है। उस समय ऐसी किसी भी आशंका का अनुमान भी नहीं किया जा सकता था उस समय कोई कहता भी तो उसकी हॅसी उडाई जाती या उसे पागल ठहराया जा सकता था। फिलहाल भक्तों के लिए यह नाजुक मौका है केजरी भक्त उदास हैं और मोदी भक्त प्रसन्न हैं।


शनिवार, 22 अप्रैल 2017

जिन्ना का जिन्न फिर से हुआ बेकाबू, रविशंकर को जकडा।

जिन्ना की सरपरस्ती में मुस्लिम लीग ने टू नेशन थ्योरी दी थी जिसके अनुसार दो धर्म के लोग एक राष्ट्र में समान रूप से विकास नहीं कर सकते है इसलिए एक साथ रह भी नहीं सकते हैं। इस आधार पर देश के टुकडे किये गये और भारत विभाजन किया गया। लगता है कि जिन्ना का जिन्न, जिसने ना सिर्फ पाकिस्तान बनाया बल्कि उसे मिटाने के कगार पर भी ला खडा कर दिया है, और अब रविशंकर के जरिए भाजपा के सिर चढकर बोलने लगा है। मुसलमानों के बारे में रविशंकर प्रसाद ने जो ताजा बयान दिया है वह इनके बुलंद होते हौसलों का तो सबूत नहीं कहा जा सकता है, बल्कि भाजपा की हताशा इससे साफ नजर आती है। किसी भी पार्टी की सरकार हो वह समाज की विभिन्न मान्यताओं परम्पराओं और विश्वासों को इस तरह चुनौति कभी नहीं देती है जैसी भाषा रविशंकर बोल रहे हैं, यह विभाजनकारी भाषा है। आतंकवादी, पृथकतावादी समाजविरोधी लोग इस तरह नकारात्मक बातें करते रहे हैं लेकिन सरकार इस तरह की बातें करे तो अनुमान लाया जा सकता है कि चीजें सरकार के हाथों से निकलती जा रही हैं। आम आदमी चाहे मुसलमान हो या हिन्दु हो इसके जरिए सरकार क्या साबित करना चाहती है? क्या मुसलमानों के वोट की ताकत अलग और दूसरे लोगों के वोट की ताकत में अन्तर है। या कोई वर्ग दूसरे दर्जे का नागरिक है जो अवांछित है। सरकार को मालूम होना चाहिए कि वह देश की माईबाप बनने की कोशिश ना करे। सरकार एक प्रकार की बडी महापालिका है जिसके पास साफ सफाई से लेकर रक्षा, वित, विज्ञान, न्याय और अन्तर्राष्ट्रीय सम्बन्धों की भी जिम्मेदारी है साथ ही साामजिक सुरक्षा से लेकर रोजगार, शिक्षा, चिकित्सा, आवास की जवाबदेही है। अपना काम छोडकर कर इस तरह लोगों की जात-औकात का मूल्यांकन करना खुली बदमाशी है।  जिसकी ऑख में मोतियाबिंद हो उसे दुनियां बदलने की नहीं अपना ऑख का उपचार करवाने की जरूरत है। भारत जैसा है उसे हर किसी को मंजूर करना ही होगा। भाजपा के हिसाब से भारत नहीं बदलने वाला है इस पर हमेशा से ही ध्यान देने की जरूरत है इतिहास की किसी भी तरह की मनगंढत व्याख्या , द्व्रेषपूर्ण विष्लेषण और तथ्यों के गलत प्रस्तुतिकरण से कोई समस्या हल नहीं हो सकती है मूल बात यह है कि हिन्दु-मुसलमान कोई समस्या है ही नहीं जो लोग इसे समस्या की तरह पेश करते हैं दरअसल यह उनकी राजनीतिक मजबूरी है वे मुसलमान अथवा हिन्दुओं का खौफ बनाकर प्रतिक्रिया में दूसरे तरह के लोगों के ठेकेदार बनने की कोशिश करते हैं यही इनकी कुल राजनीतिक जमा पूॅजी और दर्शन है। यदि कोई इसे यही साबित करने की कोशिश करता है तो फिर वह जातिगत भेदभाव, आर्थिक भेदभाव और सामाजिक भेदभाव जो कि हिन्दु- मुसलमान दोनों ही समुदायों में समान रूप से फैले हैं उनसे मुॅह कैसे चुरा सकता है और उनका समाधान कैसे करेगा?


और अब सोनू की शरारत ।

पिछले कुछ दिनों से अजान और भजन के बीच महाभारत छिडा दिखता है, सोनू निगम के मिजाज में एक हल्कापन तो हमेशा से ही रहा है लेकिन वे इतनी घटिया हरकत करेगें इसकी तो शायद ही किसी को उम्मीद रही होगी। अनायास ही जिस तरह उन्होंने अजान के खिलाफ बात कही उसका कोई प्रसंग ही नहीं था और ना ही कोई जरूरत थी। कमोवेश इसी तरह आमिर खान ने भी जब अनायास ही अपनी पत्नी का हवाला देकर कहा कि भारत  रहने लायक नहीं रह गया है वे कहीं बाहर भी जाने पर विचार कर रहे हैं। इन दोनों के बयानों से लगता है कि सैलीब्रैटी को मोहरा बनाकर  कुछ लोग सजिशन बहस को पर्दे के पीछे से संचालित कर रहे हैं। यह नये किस्म का धंधा बनता जा रहा  हैं जिसमें पैसा और पब्लिसिटी दोनों एकसाथ मिल सकते हैं। इसका मतलब ये कतई नहीं हैं कि सोनू और आमिर कोई मासूम हैं इनके साथ कोई ज्यादती हुई होगी। ये किसी का मोहरा ऐसे ही नहीं बने होगें, इसमें लम्बा राजनीति मोलभाव हुआ हो सकता है और इन्होंने भरपूर कीमत वसूली होगी। इन्होनें चाहे जितनी भी कीमत वसूली हो उससे कई गुना अधिक कीमत इन्हें चुकानी पडी है। और इन दोनांे के लिए यह जर्बदस्त घाटे का सौदा रहा है। बयानों के बाद आमिर और सोनू दोनों की अपनी ही लुटिया डूब गयी। हमें इस राजनीति पर गौर करना होगा। यदि हम आमिर के बयान पर गौर करें तो सवाल उठता है कि क्या भाजपा की सरकार आने से देश का ही चरित्र बदल जाऐगा, किसी सरकार में इतनी ताकत है कि वह देश का चरित्र बदले दे? फिर आमिर ने  भारत के बारे में इतनी बडी बात कैसे कह दी क्या वे भारत को जानते हैं? या फिर उन्होंने मोदी को ही भारत समझ लिया। जाहिर है कि उन्होनें लिखी-लिखाई स्क्रिप्ट पढी। वे जिस खेमे के आदमी हैं उस खेमे को लगता था कि  आमिर के बयान से  उनका पक्ष मजबूत हो जाऐगा और याकार के खिलाफ असहिष्णुता के बारे में उनकी धारणा लोगों में स्वीकृत हो सकती है। आमिर को भी अपने बारे में खामखयाली रही होगी अमूमन इस स्तर पर खामखयाली होना बडी आम बात है।  इन्हें लग सकता था कि इस तरह मोदी सरकार को कटघरे में खडा किया जा सकता है। परिणाम उल्टा ही हुआ, आमिर की जो अपनी इमेज थी वह भी बट्टे खाते में चली गयी। इसी तरह इस बार सोनू निगम ने अघोषित तरीके से सरकारी पक्ष को मजबूती देने के लिए यह स्क्रिप्ट पढी कि अजान से उनकी नींद में खलल पडता है। यह एक राजनीतिक मकसद से दिया गया बयान था जो कि सोनू के गले पड गया और उनके बाल बन गये, इनकी हजामत भी जल्द ही बननी चाहिए इसकी उम्मीद की जा सकती है। कीर्तन हो या अजान हो ये सोये हुए लोगों को नींद से जगाने के लिए ही होते हैं यदि लोग सोये ही रह गये तो फिर अजान और कीर्तन का कोई मतलब नहीं रह जाता है, सोनू भी आध्यात्मिक भाषा में एक प्रकार की मूर्छा/नींद में बोल रहे हैं इस मामले में सोनू को भी अब जागना चाहिए। जिस तरह सोनू ने नफरत फैलाने की कोशिश की वह पूरी तरह निन्दनीय तो है ही बल्कि दण्डनीय भी होना चाहिए। लोगों को याद होगा कि जब लालकृष्ण आडवानी रथ यात्रा लेकर पूरे देश के भ्रमण पर निकले थे तब जयश्रीराम उनका नारा था,  यह शब्द एक राजनीतिज्ञ के मुॅह से निकल कर इतना खतरनाक हो गया कि देश में दंगों की स्थिति आ गयी और आज इस शब्द का ओज, इसकी निष्कपटता और माधुर्य कहीं खो सा गया है। गॉव  कस्बों में जैराम जी की और राम-राम भैया, दुआ सलाम जैसी ग्राह्यता रखते रहे हैं लेकिन गलत मकसद के लिए यही शब्द सामाजिक विभाजन का प्रतीक बना दिया गया है। इसी तरह तुर्की में रूसी राजदूत को गोली मारने के बाद हत्यारे ने जिस तरह अल्लाहू अकबर कहा उसके बाद लोग इस शब्द को सुनकर चौंकते हैं कि कहीं आतंकवादी  ना आ गये हों। फ्रांस से लेकर जर्मनी और दूसरे यूरोपीय देशों में आतंकवादी जिस तरह धार्मिक शब्दों का इस्तेमाल करके लोगों की हमदर्दी हासिल करने की कोशिश करते हैं उसमें हमें फर्क करना चाहिए। आतंकवाद पर हम मौन रहे और धार्मिक शब्दों पर सवाल खडा कर दें यह दूसरे किस्म का आतंकवाद है। इसमें शब्दों का कोई गुनाह  नहीं है, शब्द विवादास्पद इस तरह होते भी नहीं हैं विवादास्पद वे लोग हैं जो शब्दों से उपजे पवित्रतम एहसास को भी कलुषित कर रहे हैं।  इसमें अजान या कीर्तन को जिम्मेदार कैसे ठहराया जा सकता है?


मंगलवार, 18 अप्रैल 2017

राष्ट्रीयता की राहजनी!

इस देश में तथाकथित कम्युनिस्टों के एक गिरोह, कथित प्रगतिशील आंदोलन के स्वनामधन्य पुरोधाओं और वर्तमान में एक छोटे से छिनाल गिरोह ने भारत को एक देश नहीं बल्कि राष्ट्रीयताओं के समूह के रूप में पेश करने की पुरजोर कोशिश की है और तर्क दिया है कि इस उेश में शामिल कोई भी राष्ट्रीयता यदि  इस समूह से अलग होना चाहे तो यह उसका मौलिक अधिकार है, कश्मीर के लाखों निवासियों को उन्हीं की राष्ट्रीयता के लोगों ने  राज्य से धर्म के नाम पर निकाल बाहर किया तब  ये लोग राष्ट्रीय के सवाल की व्याख्या नहीं कर पाये और आपराधिक चुप्पी अख्तियार कर ली। काफी हद तक आततायियों के समर्थन में यह कहकर खडे हुए कि कश्मीरी पंडित हमारे वोट बैंक नहीं हैं वे बीजेपी समर्थक लोग हैं। बडी आबादी को उनके ही राज्य में उनकी ही राष्ट्रीयता के लोगों ने लूटा, बलात्कार किये, हत्यायें की और  घरों पर बाकायदा कब्जा कर लिया गया।  लेकिन राष्ट्रीयता के झंडाबरदार कुछ नहीं बोले और आज तक चुप है।, आज फिर से इस दलील के साथ ये लोग मुॅह उठाये बोल रहें हैं कि यह राष्ट्रीयताओं की आजादी का सवाल है। इनका  खुला मकसद देश की केन्द्रीय सत्ता को कमजोर करने के लिए  सारे पृथकतावादी आंदोलनों को समर्थन देना मात्र है इससे अधिक राष्ट्रवाद की इनकी कोई और समझ नहीं हैं।एक समय बिहार में इसी तरह जाति आधारित राजनीति के लिए कथित कम्युनिस्टों ने यह तर्क दिया था कि समाज में जाति विभाजन और आर्थिक विभाजन एक ही हैं इसलिए पिछडी जातियां सर्वहारा वर्ग में ही आती हैं इस आधार पर सवर्ण, बुर्जआ वर्ग का प्रतिनिधि है इसलिए जातिगत आधार पर राजनीति की जानी चाहिए। कुल मिलाकर लालू, नितिश, पासवान और मायावती जैसे लोगों ने दशकों तक लोगों को इसी तर्क से बेवकूफ बनाये रखा और कम्युनिस्ट इनके पिछलग्गू बने रहे कुछ हद तक आज भी इनकी वैचारिक समझ यही है।  इसी तरह पृथकतावादी आंदोलनों को समर्थन देना इनका लक्ष्य है। यह बहस काफी लम्बी है। लेकिन जो गौर करने की बात है कि मोदी ने इस विरोधाभाष को चतुराई के साथ पकडा, मोदी ने दूसरे तरह के राष्ट्रवाद की अवधारणा पेश की है मोदी का राष्ट्रवाद तीन तलाक, बीफ और राम मन्दिर तक ही बोल पाता है इससे अधिक इनकी भी कोई समझ नहीं हैं कुल मिलाकर इन दो किस्म की मूर्खताओं, धूर्तताओं के बीच राष्ट्र अपना वजूद तलाशने में लगा है। इस बीच मौका है जिसमें मोदी पूरे देश में घूम-घूमकर वोट तलाश रहे हैं और कथित राष्ट्रवादी समूह की अवधारणा वाले लोग देश को तोडने की मंशा के साथ कश्मीरी आतंकवादियों के साथ नारे लगा रहे हैं आजादी! पंडितों से उनकी ही धरती छीन कर ये किस मुॅह से राष्ट्रीयता की दुहाई दे रहे हैं कोई नहीं जान सकता है।


सोमवार, 17 अप्रैल 2017

जमाने के खुदाओ, ज्यादा पत्थर ना चलाओ।

जानकार लोगों का कहना है कि दिल में बुरे खयाल आना बुरा नहीं है लेकिन बुरे खयालों से आदमी का हार जाना बहुत बुरा है। आज दुनियां में अधिकतर तनाव इसी बात के इर्द-गिर्द हैं कि अच्छाई के बारे में मेरी परिभाषा ही अन्तिम रूप से सही है, दूसरे को इसे मानना ही चाहिए। इसी तर्क के सहारे लोग अपनी कथित अच्छाइयों के नाम पर बुराईयों के साथ मजबूती से खडे हैं। हालांकि इसे बहस से तय नहीं किया जा सकता है कि कौन अच्छा है और कौन बुरा है।  इसे तय करने का तरीका दूसरा ही है। फिलहाल कश्मीर में एक पत्थरबाज को जीप से बॉधकर घुमाने का विषय चर्चा में है, हर मामले में सेना के साथ पूरी तरह खडे होने के बावजूद इस घटना के साथ खडा होना लोगों के बीच यदि चर्चा का विषय बन रहा है तो बहुत से लोगों को यह असहज भी  महसूस हो रहा है। अधिकतर लोगों का मानना है कि इससे सेना की प्रतिष्ठा बढी नहीं, यह घटना भारतीय सेना का प्रतिनिधित्व नहीं करती है इसे क्षणिक आवेग में स्थानीय स्तर पर लिये गये एक तात्कालिक  मामले से अधिक महत्व नहीं दिया जा सकता है और माना जाना चाहिए कि अब इस तरह की घटनायें फौज की तरह से नहीं होगी। सवाल पत्थरबाज की प्रतिष्ठा का नही है, इसमें भारतीय सेना की प्रतिष्ठा का प्रश्न सर्वोपरि है। हराये गये लोगों को सभी विजेता एक तरह से ही पराजित नहीं करते हैं, बदला लेना, बेईज्जत करना या किसी का तमाश बना देना बहुत ही हल्की मानसिकता का लक्षण हैं।  सिकन्दर एक तरह से पुरू को पराजित करता है और बुश दूसरी तरह से सद्दाम को पराजित करता है इसीलिए सिकन्दर, सिकन्दर है और बुश, बुश है।  अमेरिका ने भी वहॉ के मूल निवासियों का सफाया करके भी वहॉ सफलता हासिल की लेकिन भारतीय चिंतन इससे कभी भी सहमत नहीं हो सकता और यही हमारी खूबी है पॉच हजार साल के इतिहास का यही एक फूल है जिससे आज भी पूरा विश्व सुवाषित होता है  हमारे इतिहास में भी खामियंा रही है लेकिन इसका विश्लेषण बडे लोग कर सकते हैं मामूली आदमी छींटाकसी से ज्यादा कुछ कर भी नहीं सकता है। कहने का मतलब हमसे भी गलतियां हो सकती है उसे मानने में कोई हर्ज नहीं है और यही हमारे सही होने का सबसे बेहतर तरीका भी है कि हम बुराईयों  अथवा कमियों के साथ केवल इसलिए ही खडे नहीे हो जाते कि वह हमने की हैं बल्कि हमसे कोई गलती हुई है तो हम उस पर बात करने को बडा जरूरी समझते हैं। अकूत बलिदानों के बाद कश्मीर में लडाई  अब निर्णायक दौर में आ पहुॅची है, यह साबित हो चुका है कि पत्थरबाज किसी विचारधारा का प्रतिनिधित्व नहीं करते बल्कि भारतीय फौज के नरम रूख का फायदा उठा रहे है। आज कथित कश्मीर आंदोलन के पास अपना कोई चेहरा ही नहीं है एक प्रकार की अराजकता है जिसे फाईनल टच देकर कुशलता से समेटे जाने का वक्त आ चुका है इसलिए किसी भी किस्म की नासमझी से फायदा कम नुकसान ज्यादा होगा और  यह समस्या  समाधान में कुछ अतिरिक्त दिन ले लेगी। जिनकी समझ इतनी बचकानी है कि मुॅह पर कपडा लपेटकर ये आंदोलन कर रहे हैं जिस कथित विचारधारा ने इन्हें मुॅह दिखाने के काबिल नहीं छोडा उसकी ताकत कुछ भी नहीं है,  पैलैट गन के चार छर्रों से इनके चेहरे बेनकाब किये जा चुके हैं। दरअसल ये कठपुतलियां है इनकी डोर इनके आकाओं के हाथों में हैं।


रविवार, 16 अप्रैल 2017

तलाक देना बहादुरी नहीं है, कमजोरी है।

आजकल तीन तलाक का मुद्दा जिस तरह बहस के केन्द्र में है। कि मानों यह मुस्लिम समाज की ही समस्या है। हम विस्तार से इसे समझने की कोशिश करेगें तो यह किसी समुदाय या धर्म का मामला है ही नहीं कुछ लोग बेवजह ही इसे धार्मिक मुद्दा बनाकर साम्प्रदायिक माहौल खडा करने और सामाजिक धव्रीकरण करने की कोशिश कर रहे हैं। तलाक समस्या हर समुदाय में है और कमोवेश हर जोडा इससे प्रभावित हो भी सकता है। चाहे वह किसी भी जाति, धर्म और समुदाय से सम्बन्ध रखती हो इससे पीडित हर महिला है, उनके लिए यह पीडादायी समस्या इसलिए अधिक है क्योंकि तलाक के बाद वे आर्थिक रूप से बेसहारा हो जाती है  उनके लिए तलाक केवल पति से अलग होने का मामला भर नहीं रह जाता है बल्कि अस्तित्व का सवाल बन जाता है। फिल्मी अभिनेत्रियां अथवा ताकतवर महिलाओं को तलाक से जरा भी डर नहीं लगता है वे तो इसके लिए मानो तैयार ही रहती हैं यदि जरा भी बहाना मिले तो वे इसके जरिए पति से जिन्दगी भर की आर्थिक सुरक्षा करवा लेती हैं। उनकी जिन्दगी में दस बार भी तलाक हो जाए तो वे आर्थिक रूप से दस गुना सुरक्षित हो जाती हैं। लेकिन मुस्लिम समुदाय से बाहर की गरीब महिला भी तलाक से बुरी तरह खौफजदा रहती हैं। उसकी जिन्दगी में हर क्षण असुरक्षा है। गरीब महिला का  एकमात्र सहारा उनका कमाउ पति है यदि वह बीमार ही हो जाए तो पूरा परिवार ही तलाक से बदतर दशा में आ जाता है। मूलतः यह समस्या महिलाओं की आर्थिक असुरक्षा से जुडा सवाल है हमारा समाज यदि ऐसी व्यवस्था कर सके कि महिलायें भी आर्थिक रूप से सुरक्षित हो सकें तो फिर तलाक की तकलीफ कम की जा सकती है। जो लोग अंहकार में आकर  यूॅ ही पत्नियों को छोड देते हैं उन पर बीस साल के लिए विवाह करने अथवा विवाहेत्तर सम्बन्ध बनाने पर दण्ड का प्रावधान होना चाहिए यदि कोई ऐसा करता है तो उसे जेल भी भेजा जा सकता है। क्योंकि विवाह कोई मजाक नहीं एक पारिवारिक जिम्मेदारी के साथ-साथ सामाजिक, जिम्मेदारी भी है यदि वह अपनी जिम्मेदारी का? मखौल उडाता है तो समाज और कानून को अपनी जिम्मेदारी निभाते हुए उससे सम्बन्ध तय करने चाहिए। साथ ही विवाह के लिए भी कुछ मापदण्ड निर्धारित होने चाहिए जो उन पर खरा उतरे उसके विवाह को ही संरक्षित कानूनी मान्यता मिले अन्यथा कहीं भी किसी  से भी  नैन मिले और विवाह कर लिया, दूसरे दिन तलाक दे दिया यह पशुओं में ठीक हो सकता है लेकिन सभ्य समाज में यह गलत परिणाम देगा, विवाह धर्म का मामला कम  इंसानियत और नैतिकता का मामला अधिक है। यह भविष्य के समाज का प्राथमिक स्कूल भी है जहॉ हम अपने बच्चों को तैयार करके समाज सेवा के लिए भेजते हैं। विवाह कुत्ते बिल्ली का खेल नहीं है यह बडा सामाजिक और नैतिक दायित्व भी है उसे गरिमापूर्ण बनाये बिना हम बेहतर समाज नहीं बना सकेगें। इसलिए इसे किसी जाति धर्म के दायरे से बाहर निकाल कर बडे परिपेक्ष में देख जाना चाहिए।



शनिवार, 15 अप्रैल 2017

आतंकवाद को राजनीतिक समस्या कैसे कहा जा सकता है?

इसे उनकी शोहरत कहें या रूसवाई लेकिन जुमलेबाजी का कहीं भी जिक्र हो तो लोग मोदी की ओर ही इशारा समझते हैं, अमित साह ने बाकायदा यह कहकर इस धारणा को मोदी जी के साथ चस्पा कर दिया कि मोदी जी का यह कहना चुनावी रणनीति में चलता रहता है और इसमें मोदी जी का इस तरह का जुमला फेंकना सही था। जो आदमी इसके बावजूद चुनाव जीतते जा रहा हो जाहिर ही है कि वह इसे अपनी अदा माने बैठा है और यह मानकर चल रहा है कि लोग उसकी इस अदा पर फिदा हैं। लोगों का किसी पर फिदा होना उसकी प्रमाणिकता साबित नहीं कर सकता है। लोग अभिनेताओं-अभिनेत्रियों से लेकर  बुरे आदमियों की अदाओं पर भी फिदा होते रहते हैं , राजा भैय्या, मुख्तार अंसारी, , अतीक अहमद, शहाबुद्दीन से लेकर आशाराम और रामदेव पर भी लोग फिदा हैं। सबके अपने अपने तर्क हैं कोई किसी दूसरे को सहमत नहीं कर सकता है। इसी तरह मोदी जी के भी अपने भक्त हैं। लेकिन जुमलेबाजी को लेकर बडे मामले हल नहीं किये जा सकते हैं और इस तरह के खतरे सामने आने लगे हैं, कश्मीर इसका एक छोटा सा  उदाहरण है। पहले मोदी ने पी0डी0पी0 को आतंकवादियों की पार्टी कहा और फिर उसी से गठबन्धन कर लिया, साथ ही साथ पाकिस्तान में आतंकवादियों से मिलने अपने प्रतिनिधि वैदिक को भेज दिया और खुद बिन बुलाये पाकिस्तान चले गये और भी इसी तरह की तमाम उटपटांग हरकतें की इसका खामियाजा अब कश्मीर में दिखाई पडने लगा है। वैंकय्या नायडू अब कहने लगे हैं कि कश्मीर समस्या कांग्रेस की देन है और पटेल को पूरी छूट नहीं दी गयी। पहली बात तो यह है कि पटेल भी कांग्रेसी ही थे वे भाजपा के पूर्वज नहीं हैं यह हमेशा याद रखना चाहिए। दूसरी बात यह है कि मोदी इस दावे के साथ सत्ता में आये कि मैं सब ठीक कर दूॅगा अब वे किस मर्ज की दवा साबित हो रहे हैं? वैंकय्या  को यह साफ करना चाहिए। यदि कांग्रेस की ही चूक थी तो तुम्हारे पास करने को क्या योजना है, 56 इंच का सीना कहॉ है?  देश को इस तरह गुमराह करना ठीक नहीं है। ऐसा भी नहीं है कि कश्मीर में कोई बहुत बुरे हालात हों कम से कम 90 के दशक जैसे हालात फिलहाल नहीं है फिर भी चिंता कहीं अधिक इसलिए होती है कि  वर्तमान नेतृत्व नादान और बचकाना है। फैशनपरस्त और आत्ममुुग्ध लोग किसी भी बडी समस्या से बडी समस्या खुद बनते जा रहे हैं।  अन्यथा हमारे देश की महान सेना कभी इस तरह का काम नहीं कर सकती थी कि शिखण्डी की ओट में शहर की गश्त करे। अर्जुनों और हमारे सैनिकों में यही अन्तर था कि  इन्हें किसी शिखण्डी की ओट लेने की जरूरत कभी नहीं पडी और ना ही दुश्मन की हम कभी इस तरह बेईज्जती करते हैं। जिन्होनें हमारे जवानों के साथ बुरा व्यवहार किया यदि हमने भी उसी तरह का व्यवहार किया तो दोनांे में फर्क कैसा? कुल मिलाकर कश्मीर तो बहाना है जो विवाद करने पर आमादा है उनसे निबटने के हजार तरीके हैं सेना अच्छी तरह जानती है। कोई कश्मीर  की आजादी के तर्क देता है कि इसके ऐतिहासिक आधार है लेकिन कोई इनसे पूछे कि 1947 में पाकिस्तान के निर्माण के कौन से आधार थे? उस समय तुम्हारी ताकत थी कि अपनी बात मनवाने के लिए देश में दंगे करवा सको, लूटमार, हत्या, आगजनी करवा सको, अराजकता फैला सको तो तुमने मौके का फायदा उठा लिया बिना किसी ऐतिहासिक आधार के देश के टुकडे करवा लिए लेकिन अब यह सम्भव नहीं हैं इसलिए हथियार उठाकर तुमने युद्ध शुरू किया है तो देश की सेना उसे कुचलकर ही रहेगी चाहे कुछ भी हो जाए इतना तो तय है।





देश को मांमू बना रहे हैं!

पिछले कुछ दिनों से कश्मीर से जिस तरह के विडियों की बाढ सी आ गयी है उससे सवाल उठने लगा है कि कि मोदी की कश्मीर नीति आखिर है क्या? गौरक्षक अभियान और एप्टी रोमियों अभियान की तरह कश्मीर की सडकों पर सडकों पर आतंकवादी के समर्थक खुलेआम सुरक्षाबलांे के साथ बदतमीजियां कर रहे हैं ताकी किसी तरह उनका धैर्य टूटे, कोई बडी दुर्घटना हो और अन्तर्राष्ट्रीय स्तर पर यह बहस का मुद्दा बने। दूसरी ओर जिस तरह सुरक्षा बलों ने एक पत्थरबाज को  जीप से बॉध कर घुमाया उसकी भी सराहना नहीं की जा सकती है हांलाकि मोदी भक्त इससे बडा धन्य महसूस कर रहे हैं लेकिन एक प्रतिष्ठित सैन्य बल का प्रतिनिधित्व करने वाले पक्ष को अधिक गम्भीरता की जरूरत है। यदि केवल इतने से ही पत्थरबाजी रूक जाती तो यह काम काफी पहले ही किया जा चुका होता। इसी तरह कुलभूषण मामले में जिस तरह पाकिस्तान ने भारत का ललकारा है उससे मोदी खेमा ही नहीं वह तो बेशर्म है ही, लेकिन पूरा देश सकते में है कि आखिर मोदी कर क्या रहे हैं? केजरीवाल की तरह कोई गैरजिम्मेदार आदमी विधानसभा चुनाव जीत कर सरकार बना ले तो बहुत खतरा नहीं है यह देश के अन्दर का मामला है। उनकी 16000 रूपये की भोजन थाली का भुगतान यह देश सहन कर लेगा, इतना नुकसान बर्दाश्त किया भी जा सकता है लेकिन देश की सत्ता के केन्द्र दिल्ली में कोई आदमी केवल नौटंकीबाजी के दम पर सत्ता में आ जाए और अपनी बेवकूफियों, भक्तों के जयजयकारों, रैलियों  के उन्माद, आत्ममुग्धता और विपक्ष के सन्निपात की दशा में वह देश को तबाह कर दे तो  बचाव का कोई रास्ता नहीं है।  हमें केजरीवालों और मोदियों की राजनीति की कीमत अब चुकानी ही पडेगी केजरीवाल की कीमत हम चुका सकते हैं लेकिन मोदी की राजनीतिक कीमत यह देश कैसे चुका सकेगा यह चिंता लगातार बढती ही जा रही है। केजरीवाल ने भी कहा कि मैं सब ठीक कर दूॅगा लेकिन हमारे पास उन्हें ठीक करने का मौका था और दो साल के अन्दर ही उन्हें उनकी राजनीतिक हैसियत बता दी गयी, लेकिन मोदी के मामले में अभी उन्माद इसलिए थमता नही दिखाई पड रहा है क्योंकि कोई पहलकदमी को तैयार नहीं हैं। सोमनाथ मन्दिर के पंडों की तरह उनके भक्त अब भी मोदी की जयजयकार में डूबे हैं और लोगों को भरोसा दिला रहे हैं कि मोदी आज ये कर देगें और कल को वो कर देगंे लेकिन हालात दिन ब दिन खराब होते जा रहे हैं। हम जानते हैं कि यही भाजपा कंधार में देश के दुश्मनों को बाकायदा इज्जत के साथ छोडकर आई थी और तब मोदी ने विरोध में भाजपा से इस्तीफा नहीं दिया था मोदी हों या बाजपेई इनकी सोच, कार्यशैली और सीमा इससे ज्यादा नहीं है। अब यह सन्देश देने की कोशिश की जा रही है कि मोदी से सवाल पूछने का मतलब देशद्रोह है!  मोदी की जिम्मेदारी लता मंगेशकर और अन्ना जैसे तमाम लोगों ने ली थी। केजरीवाल के बारे में तो अन्ना मॉफी मांग चुके हैं कि वह गलती थी। लेकिन लगता है कि मोदी के मामले में मांफी मांगने में अन्ना अब भी हिचक रहे हैं जबकि सारा तमाशा उजागर हो चुका है बाद में तो मांगी मांगने का भी वक्त नहीं बचेगा अन्ना साहब। ये सब लोग मिलकर देश को खुलेआम ‘मामू‘ बना रहे हैं।

गुरुवार, 13 अप्रैल 2017

समस्याओं पर पलती राजनीति।

जाति समस्या और इसके सामाजिक, राजनीतिक और आर्थिक विभाजन के मामले में पूरा पंडित और दलित दर्शन लगभग हास्यास्पद स्थिति में है, कम से कम राजनीतिक परिपेक्ष में दलित समस्या को जिस तरह पेश किया जाता है उसका कोई ओर छोर दिखाई नहीं पडता है। दोनों पक्ष जातिवाद को तथ्य माने बैठे हैं जबकि यह तथ्य नहीं परिणाम है। इस बात को पूरी चतुराई से छुपाने की कोशिश की जाती है कि हमारी राजनीतिक, सामाजिक, नैतिक और धार्मिक व्यवस्था की बुनियाद में भयानक गडबढ है जिसके कारण असमानता बनी हुई है और जातिवाद के तौर पर हमने उसे एक आधार  दे दिया। इस असमानता की हम बहुत दिनों से जातिवादी आधार पर  व्याख्या करते रहे हैं। यह अब सम्भव नहीं रह गया है। असमानता और भेदभाव के हजारों स्तर पैदा हो रहे हैं जो जातिवादी तर्क के एकदम उल्ट हैं आज एक कथित दलित बहुत मजबूत स्थिति में भी हो सकता है और एक कथित सवर्ण दयनीय दलित अवस्था में भी हो सकता है, इसके उलट राजनीतिक और स्वतंत्र विचारक यह साबित करने की कोशिश करते हैं कि जातिवाद बहुत पुरानी व्यवस्था है उसके आधार बहुत मजबूत है वे आज इसके तर्क देते हैं, वे समझ ही नहीं पाते कि इस तरह की जाति व्यवस्था का वर्तमान में कोई आधार नहीं है और ऐतिहासिक  तौर पर इसका कोई आधार रहा भी हो तो आज वह अप्रासंगिक हो गया है। जब हम आजादी की बात करते हैं तो उसका मतलब केवल अंग्रेजों के अधिपत्य से आजादी नहीं था बल्कि विचारों की हर प्रकार की जकडन से आजादी भी था। पुराने प्रसंगों के आधार पर आज के जातिवाद को जायज किसी भी हाल में नहीं ठहराया जा सकता है। लेकिन आज जातिवाद क्यों टिका है इस पर कोई बात नहीं की जाती है। क्योंकि जातिवाद का अब राजनीतिक हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया जाता है। यह स्पष्ट हो चुका है कि वर्तमान सामाजिक और आर्थिक असमानता को दूर करने में वर्तमान व्यवस्था असफल रही है इसलिए मण्डल कमीशन हो या फिर दूसरे प्रावधान के जरिए यह साबित किया जा रहा है कि  असमानता का कारण केवल जातिवाद है और इसे आरक्षण के जरिए हल किया जा रहा है यह सरासर भ्रामक और शरातपूर्ण राजनीति है। एक समय इसका भी अपना महत्व था लेकिन अब  इसे राजनीतिक हथियार के तौर पर इस्तेमाल किया जा रहा है। यह व्यवस्था लोगों को रोजगार देने में असफल रही है इसलिए जातिवाद का इस्तेमाल करके लोगों को आपस में लडवाया जा रहा है, सामाजिक विद्वेष को हवा दे रही है। कहा जा सकता है कि आज जातिवाद इन राजनीतिक दलों की जरूरत बन चुका है वे इसे मिटाने में नही बल्कि इसका राजनीतिक दोहन करने में लगे हैं जातिवादी समीकरणों के आधार पर पार्टियां चुनाव में अपने उम्मीदवार खडे करती हैं और लोगों की जातिवादी भावनाओं को हवा देती है। इस भावना को भडकाती है। यह राजनीतिक दलों की समस्या नहीं है बल्कि उनके लिए एक राजनीतिक मुद्दा है जिसका भरपूर दोहन सवर्णवादी और दलितवादी दोनों ही कर रहे हैं।


हम बुराई को हराते नहीं, नई तरह से बुराई को चुनते हैं।

दिल्ली उपचुनावों में आप पार्टी के उम्मीदवार की जमानत जब्त होना उसी तरह की एक बडी घटना है जैसी घटना भारतीय राजनीति में लगभग दो साल पहले उस समय घटी थी जब दिल्ली में आप पार्टी 70 में से 67 सीटों पर चुनाव जीतकर अचानक ही सत्ता में काबिज हो गयी। और इतने कम समय में ही उस लोकप्रिय पार्टी के प्रत्याशी की आज दिल्ली में ही जमानत जब्त हो गयी, पेंडुलम का इस तरह अचानक दूसरे छोर पर पहुॅच जाना भारतीय राजनीति की बडी घटना मानी जा सकती है। आप पार्टी जैसी आज है वैसी ही उस समय भी थी जब उसे लोगों ने सिर पर बिठा लिया था, यदि उस समय लोगों से पहचानने में गलती हुई तब भी इसमें आप पार्टी का कोई दोष साबित नहीं किया जा सकता है। कुछ लोग कह सकते हैं कि केजरीवाल ने लोगों को बहका लिया, तब यह मानने में क्या अडचन हो सकती है कि आज मोदी लोगों को बहका रहे हैं और कल कोई दूसरा भी बहका ही लेगा। सवाल पार्टियों की गुणवत्ता से ज्यादा वोटरों की समझ का है कि उनकी हैसियत अपने प्रतिनिधियों का चुनाव करने की रह भी गयी है या वे शरणागति चुनने तक ही वे सिमित रह गये हैं। केजरीवाल की शरण ठीक रहेगी अथवा मोदी या कांग्रेस में से किसके दरबार में मत्था टेका जाए जनता की भूमिका केवल इतना ही तय करने तक सिमित रह गयी है।  इससे यह भी संकेत भी मिलता है कि हमारा लोकतंत्र बहुत ही अपरिपक्व और बचकाना है। केजरीवाल ने दावा किया था कि इन्टरनैट वाई-फाई के जरिए मुफ्त कर दूॅगा, बसों में मार्शल तैनात कर दूॅगा, कदम कदम पर सी0सी0टी0वी0 लगवा दूॅगा, दिल्ली को बलात्कार रहित बना दॅॅूगा, सरकार के मंत्री सरकारी आवासों में नहीं रहेगें, सरकारी वाहनों का इस्तेमाल नहीं करेगें आदि-आदि। इसी तरह  मोदी जी ने दावा किया कि मेरा सीना 56 इंच का है मैं पाकिस्तान की खटिया खडी कर दूॅगा, कश्मीर से 370 हटा दूॅगा, माओवाद को चुटकी में मसल दूॅगा,  कालाधन ले आउॅगा, दो करोड रोजगार हर साल पैदा करूॅगा, गंगा को साफ कर दूॅगा ,भारत से गंदगी हटवा दॅूगा। लेकिन तीन साल बीत जाने के बाद भी कुछ होता दिखाई नहीं पड रहा है। अब वे 2019 के चुनाव में जुट गये हैं, ऐसे समय में कोई नया मोदी पैदा होकर नये वादे करने लगे तो यह भीड उसके पीछे हो लेगी। यह वोटरांे की आशा नहीं बल्कि हताशा है कि वे कभी इस द्वार को खटखटाते हैं कभी उस द्वार पर दस्तक देते हैं। लेकिन वे विश्वास से नहीं कह सकते हैं कि  ये मेरे प्रतिनिधि है हकीकत में जनता किसके पीछे खडी होगी यह तय करने में      हजार किस्म के सर्वेक्षण, जोड-तोड, खरीद फरोख्त का मुख्य किरदार होता है।  और दो-चार पार्टियां ही इसे तय करती हैं। इस समय राजनीति में जोकरों ने नायकों की भूमिका अख्तियार कर ली है और लोगों को भी समझ में नहीं आ रहा है कि नायक कौन है और विदूषक कौन है? तमाम रंगे हुए लोग नायक होने का भरम देने में सफल होते रहे हैं कि वे ही असली शेर हैं।



बुधवार, 12 अप्रैल 2017

तीन तलाक पर राजनीति।

उत्तरप्रदेश विधानसभा चुनावों में जीत के बाद से  राजनीतिक नारेबाजी का पूरा ऐजेण्डा ही बदला गया लगता है। योग, कालाधन, स्वच्छ भारत, और शौचालय जैसे नारे अब पृष्ठभूमि में डाल दिये गये हैं। आजकल फिजाओं में तलाक और गौरक्षा का शोर है। तलाक भी केवल मुस्लिम महिलाओं के बारे में ही, बाकी समुदाय में तलाक का बाकायदा प्रावधान ना होने के बावजूद बडी संख्या में जिस तरह पति पर निर्भर महिलायें असहाय अवस्था में चली जाती हैं उनके बारे में कोई बात नहीं की जा रही है। तीन तलाक का मतलब भी यही दिखाने की कोशिश की जा रही है कि यह ऐसी कुप्रथा है जो कि एक खास समुदाय की महिलाओं को ही तकलीफ दे रही है, और उन तक ही सिमित है, हमें उन्हें किसी तरह बचाना है। हद तो तब हो गयी जब एक लम्पट मानसिकता वाली साध्वी ने खुलेआम कहा है कि उस समुदाय की लडकियां हमारे समुदाय के लडकों से प्रेम निवेदन करें तो वे आराम से रह सकेंगंी। इस बयान का तीन तलाक अभियान के प्रणेताओं ने कोई विरोध नहीं किया और ना ही कोई आपत्ति जताई, जाहिर है कि इस बयान का वे भी समर्थन करते हैं। इसका मतलब निकला जा सकता है कि यह बयान अधिकृत रूप से भाजपा का बयान  है।  जबकि यह पूरी तरह पागलपन भरा बयान है। ऐसा कहना गलत है  कि किसी भी समुदाय में तीन तलाक की प्रथा है क्योंकि मुस्लिम समुदाय के सभी पुरूष अनिवार्य रूप से अपनी पत्नियों को तलाक देते हों ऐसा देखने में नही आता है, अधिकतर जोडे विवाह करके आराम से उसी तरह रहते हैं जैसे किसी भी दूसरे किसी समुदाय के परिवार रहते हैं। यदि यह प्रथा होती तो हर विवाहित जोडे में तलाक की अनिवार्य रस्म होती, वास्तव में जिसे प्रथा कहा जा रहा है वह प्रथा नहीं मानसिकता है ठीक वैसे ही जैसे कि मुस्लिम समुदाय के अलावा जितने भी समुदाय हैं उनमें भी पुरूष अपनी पत्नियों को तलाक देते रहते हैं। कुछ मामलों में तो बिना पत्नी को बिना सूचना के ही छोड दिया जाता है जबकि वे  आर्थिक मामलों में पूरी तरह पति पर निर्भर होती हैं। और तलाक के बाद किसी आर्थिक सहायता का भी कोई पालन नहीं करता है।  बहुत से ऐसे ख्यातिनाम लोगों के उदाहरण भी हैं जो कथित तौरा पर हिन्दु हैं जिन्होंने शहर में जाकर अपने नये परिवार बसा लिए और गॉव में पत्नी उनके लिए करवा चौथ का व्रत रखती आ रही है। इसलिए इस तरह के मामलों में राजनीति करने और  नये किस्म के घालमेल करने कह बजाए इस मामले पर खुलकर बात की जानी चाहिए। पागल साघ्वी या दूसरे लोग इस तरह बयान दे ंतो उन पर ना सिर्फ मुस्लिम समाज की ओर से बल्कि हिन्दु समाज की ओर से भी आपत्ती जताई जानी चाहिए कि सारे हिन्दुओं के तुम ठेकेदार कब से हो गये?



रविवार, 9 अप्रैल 2017

मोदी की असली ताकत भक्त नहीं, विरोधी हैं।



पहलू खान की हत्या को लेकर मोदी, वसंुधरा और भाजपा के लोगों को लोगों द्वारा सवालों के कटघरे में लाया जा रहा है। इन लोगों का सवाल यह नहीं है कि एक आदमी को भीड दिनदहाडे खुलेआम कैसे मार सकती है? इस वहशी, जालिमाना,  आदिम कबिलाई न्याय पर सत्ता मौन कैसे है? स्वतः संज्ञान लेने वाली अदालतों, पुलिस, खुफिया विभाग और  तमाम मानवाधिरवादी संगठनों की सक्रियता उस तरह नहीं आई जैसे  कि किसी भी संवेदनशील समाज में होना चाहिए। जो लोग सवाल भी उठा रहे हैं वे इसे अल्पसंख्यकों पर अत्याचार की तरह दिखा रहे हैं, मोदी की यह खुशनसीबी है कि उन्हे चाहे भक्त बहुत काबिल ना भी मिले हों लेकिन विरोधी हद दर्जे के नाकाबिल मिले हैं। किसी आदमी की हत्या कर दी जाती है और हम साबित करने में लगे है कि वह इसलिए मारा गया क्योंकि वह मुसलमान था, मोदी भी यही साबित करना चाहते थे लेकिन इसे वे अपने मुॅह से कहें तो नुकसान हो सकता था अपनी बात वे विरोधियषें से कहलवाने में काफी कुशल हैं या कहा जा सकता है कि उनके विरोधि इतने मूर्ख हैं कि वे मोदी के जाल मे असानी से आकर फॅस जाते हैं। मोदी जी अपनी मुद्राओं, हाव-भाव, तेवर और अंदाज से वे केवल इशारा करते हैं और  कांग्रेस से लेकर ,मुलायम, मायावती, वामपंथी और भी तमाम  लोग उसकी जिस तरह व्याख्या  करते हैं इससे धुव्रीकरण और तीव्र हो जाता है।  इन मामलों में कुछ गैरजिम्मेदार लोग इस तरह प्रतिक्रिया करते हैं कि जैसे उन्होनें अल्पसंख्यकों, जातियों का ठेका ले लिया है, हत्या उनके लिए उतनी महत्वपूर्ण नहीं है जितना कि जाति और धर्म है। ऐसे वक्त भी वे वोटों की राजनीति से उपर नहीं उठ पाते हैं लोग समझ जाते हैं कि चाहे भाजपा और उनके सहयोगी संगठन साम्प्रदायिकता करते हैं लेकिन इनके विरोधी कम खतरनाक साम्प्रदायिक नहीं हैं। इससे ज्यादा उन्हें कोई समझ नहीं है। गुजरात दंगों की जिस तरह व्याख्यायें की गयी उसने मोदी या इस तरह की ताकतों को लगातार मजबूत ही किया और परिणाम सामने है कि दिल्ली फतह के बाद अब देश के सबसे बडे राज्य उत्तरप्रदेश में भी इन्हीं ताकतों को सत्ता मिल गयी है। यह रूझान कहॉ तक जाऐगा कहना कठिन है। लेकिन इतना तो कहा जा सकता है कि मोदी जो बात इशारों में कहते हैं उसमें एक प्रकार की पर्दादारी है लेकिन कथित प्रगतिशील ताकतें जिस बेहूदे तरीके से प्रतिक्रिया करते हैं उसके बाद लोगों का मोदी के पक्ष में झुकने का तर्क समझ में आता भी है और कोई आश्चर्य भी नहीं करता है।  इसलिए व्याख्या का इतना महत्व बताया गया है, यह अर्थ का अनर्थ भी कर सकती है। भक्तों को तो सिर्फ गाली गलौच के कुछ करना ही नहीं है। जब सारा काम मोदी के विरोधी ही कर दे रहे हैं तो फिर चुनाव सभा को सम्बोधित करने और मन की बात कहने के सिवा मोदी के पास करने को कुछ बचता भी नहीं हे बाकी समय वे उन परियोजनाओं का उद्घाटन करने में बिता देते हैं जिन्हें पूर्ववर्ती सरकारों ने लागू किया था।  मोदी की कुशलता देखिए इसके लिए वे पहले की सरकारों को गालियां भी देते हैं और उनके गीत भी गाते हैं  वे दोनों काम एक साथ भी कर लेते हैं। कल शेख हसीना जब गुलाबजामुन के डिब्बे लेकर आयी तो वे गुलाब जामुन मोदी की जुमलेबाजी के लिए नहीं थे, वे इस देश के उस इतिहास को सलाम कर रही थी जिसे मोदी गाली देते हैं। मोदी को कुछ तो शर्म आई ही होगी कि इतने शादार मंहगे सूट पहनने के बाद भी इंन्दिरा गॉधी के जलवे के सामने वे कहीं भी नहीं ठहरते हैं। वक्त इतने बेहतर तरीके से आईना दिखाते रहता है लेकिन हम जानबूझ कर भी अनजान दिखने की कोशिश करते हैं।

शनिवार, 8 अप्रैल 2017

ससंद की और अम्मा की कैंटीनें।

अम्मा कैंटीन और संसद कैंटीन में समानता होते हुए भी इनमें बुनियादी भिन्नता है, दोनों का स्वाद अलग, अंदाज अलग और माहौल अलग है। एक माल-ए-मुफ्त है, लजीज है, एफरात है  दूसरा वोट, रहम और अनुदान जैसी तमाम मजबूरियों का फल है।  अम्मा कैंटीन की मूल अवधारणा पर जिस तरह अनेकों राज्य जिस तेजी से योजनायें अमल में ला रहे हैं उससे सवाल उठना स्वाभाविक है कि क्या ये सभी राज्य इसकी मूल अवधारणा से सहमत है। इस पर बात किये जाने की तत्काल जरूरत है। क्या यह वाकई लोककल्याणकारी नजरिया है कि इस तरह कम से कम कीमत पर लोगों का पेट भरा जा सकता है। यह विचार कुछ आगे बढे तो बात यहॉ तक जा सकती है कि  आदमी को भोजन की भी कोई जरूरत नहीं उसे नियमित अंतराल में कुछ विटामिन की गोलियां, कैप्सूल और इंजैक्शन दिये जा सकते हैं जिससे वह ताकत और स्फूर्ती महसूस कर सके और जरूरी काम कर सके। पूछा जा सकता है कि किसी भी सभ्य समाज में भोजन क्या पेट भरने का ही नाम है या यह हमारी व्यक्तिगत, पारिवारिक, सामाजिक और मानवीय प्रक्रिया का अनिवार्य और महत्वपूर्ण हिस्सा है। हम पैट्रौल की टंकी नहीिं है कि हमारे लिए भोजन केवल यांत्रिक जरूरत जैसा हो। एक आदमी रोजी-रोटी की तलाश में कोई भी काम करता हो उसमें उसकी सारी संवेदनायें विकसित, पुष्पित और पल्लवित होती हैं। घरेलू सामान खरीदने से लेकर हमारे परिवार के सामने भोजन की थाली के रूप में आने तक उसका एक विज्ञान है और विकासक्रम है। इसे कमतर नहीं किया जा सकता है और ना ही इसे नजरअंदाज किया जा सकता है। कल को सरकारें नोटबंदी की तरह रातों-रात कैंटीन बंदी का फरमान लागू कर दे ंतो आदमी कहॉ जाऐगा? कम से कम भोजन की गरिमा को इस तरह कमतर नहीं किया जाना चाहिए। हर आदमी को ऐसा माहौल मिलना ही चाहिए कि वह भोजन के मामले में इस तरह से मजबूर ना हो कि कम पैसा होने के कारण वह खास प्रक्रिया से भोजन लेने को मजबूर है। मोदी जी ने कहा था कि हम लोगों को इस काबिल बनाऐगें कि वे सब्सिडी लेने की मजबूरी से बाहर आयें और आर्थिक रूप से सशक्त हों। लेकिन कैंटीन की यह भोजन व्यवस्था साबित करती है कि अब राजनीतिज्ञों के पास ऐसा कोई विचार नहीं रह गया है कि लोग को आर्थिक रूप से इतना मजबूत कर सके कि वह लोगों को भोज पर आमंत्रित कर सकें। अब सब्सिडी के भोजन पर निर्भरता का दौर बढता जा रहा है। यह कमजोर होते भारत का लक्षण है बावजूद इसके कि  बाहर से भारत को चमकता हुआ दिखाया भी जाता है लेकिन बडी संख्या में राज्य इस योजना को जिस शान से लागू कर रहे हैं लगता है कि जैसे यह महान विचारक्रान्ति हो। इसे पूरे परिपेक्ष में गहराई से समझे जाने की जरूरत है। भीख में मिला भोजन कितना ही पौष्टिक क्यों ना हो उसकी तासीर जहरीली ही होती है और अपनी कमाई की रूखी-सूखी रोटी भी आत्मिक उर्जा से आदमी को नहला देती है। इसलिए रोटी के सवाल को इतने सतही ढंग से हल करने की कोशिश करना ठीक नहीं लगता है।



शुक्रवार, 7 अप्रैल 2017

धर्म, संस्कृति और राष्ट्र क्या खाक समझ में आता है?


सुप्रीम कोर्ट ने सरकार से गौरक्षक दल के बारे में जो सवाल पूछा है वह सरकार को असहज स्थिति में डाल सकता है। इसी तरह का सवाल सुप्रीम कोर्ट ने आदिवासी सुरक्षा दल के नाम से सक्रिय संगठन सलवा जुडूम के बारे में भी पूछा था और अंततः उसे प्रतिबन्धित कर दिया गया। कथित गौरक्षा दल ने कहीं भी गौ रक्षा की हो ऐसा  इस पूरे अभियान में दिखाई नहीं दिया अलबत्ता रक्षा के नाम पर लोगों पर हमला जरूर किया गया और कुछ मामलों में जान भी ले ली गयी, इससे गौरक्षा कैसे हो पायेगी यह समझना और समझाये जाने के इंतजार में शायद सुप्रीम कोर्ट भी है इसी लिए कोर्ट की ओर से सरकार को नोटिस जारी किया गया है। इस मामले में सरकार बचाव की मुद्रा में है क्योंकि इन हमलावर गतिविधियों को सरकार का ना सिर्फ समर्थन है बल्कि काफी हद तक संरक्षण भी है। इन्हें गौरक्षक दल कहना भी ठीक नहीं है, दरअसल ये झगडा दल हैं, कहीं ये गाय के नाम पर झगडा करते हैं, कहीं ये युवक-युवतियों की मित्रता के नाम पर झगडा दल हैं, कहीं ये लव जिहाद के नाम पर झगडा करते हैं, कहीं दूसरे बहाने से झगडा करते हैं, ये रक्षा किसी की भी नहीं करते केवल खूबसूरत नामों से लोगों पर हमला करते हैं। चाहे ध्येय कितना ही ठीक हो लेकिन अराजक भीड को इस तरह खुला छोड देना वाकई गम्भीर चिंता की बात तो है ही। ये सडक पर ही सुनवाई करते हैं और दण्ड भी मौके पर ही तत्काल दे देते हैं। आम धारणा है कि ये लोग एक समुदाय को निशाने पर लेकर ही अपनी कार्यवाही चलाते हैं इसलिए काफी हद तक जितना इनका विरोध होना चाहिए उतना ही उनका समर्थन भी दिखाई पडता है यदि इसे समर्थन ना भी माना जाए तो कम से कम  इनकी गतिविधियों पर लोगों ने खामोशी तो अख्तियार कर ही रखी है। बर्तोल्त ब्रैख्त की कविता कभी वे उनके लिए आये और मैं कुछ नहीं बोला, इस माहौल में काफी समझ में आती है। लोग इस तरह भी सोच सकते हैं यह सोचना काफी कठिन है। पाकिस्तान में धर्म की बेअदबी के नाम पर भीड किसी को भी मार सकती है ऐसा वहॉ बाकायदा कानून है। लगभग वैसी ही मानसिकता हमारे यहॉ भी स्थापित करने की कोशिशें लगातार हो रहीे हैं  धर्म, संस्कृति, नियम, कायदा और कानून को हम भीड के हाथांे जाते हुए देख रहें हैं। सवाल उठता है कि इसमें सरकारों का क्या हित है? दरअसल यह सरकारों की मजबूरी है कि वह उन लम्पटों को भी सत्ता में हिस्सेदारी दें जिनके कंधो पर चढकर ये सत्ता तक पहुॅचे हैं। रात में टार्च लेकर ट्रकों की तलाशी लेने में एक प्रकार का सत्ता सुख तो है ही। संस्कृति के नाम पर जब आप किसी की पिटाई सडकों पर खुलेआम करने लगते हैं तो उसमें एक रोमांच की अनुभूति तो होती ही है। इनकी हैसियत के अनुसार इनका इतना ही हिस्सा बनता है। ये कोई इतने असरकार तो हैं नहीं कि मोदी से मंत्रालय मांगने लगें, जिनकी हैसियत थी उन्हें मोदी जी ने गोआ और मणिपुर में मंत्रालय भी दिये अपनी पार्टी में प्रदेश प्रमुख भी बनाया, असम में तो मुख्यमंत्री तक बनाया लेकिन ये बेचारे, लेकिन विकृत मानसिकता के लोग इतना ही कर सकते हैं और इतना भी नहीं समझते हैं कि ये इस्तेमाल हो रहे हैं ऐसे लोगों को धर्म, संस्कृति और राष्ट्र क्या खाक समझ में आ सकेगा?


चाहे देश का विभाजन रहा हो या देश में विभाजन, यह गलत है।

माना जाता है कि साम्प्रदायिक राजनीति द्विअर्थी संवाद की तरह काम करती है, यहॉ पर द्विअर्थी का मतलब यमक अलंकार नहीं है बल्कि भाव-भंगिमा, अंदाज, स्वर के उतार चढाव और चेहरे के बदलते रंगों और मंतव्यों से है। आप कोई बात कहें कामुक मानसिकता उसका इस तरह चित्र बना लेती है जिसका कोई मतलब ही नहीं, यही उसकी कथित रचनात्मकता है जिसका सामान्य आदमी अनुमान भी नहीं लगा सकता है। साम्प्रदायिक राजनीति और मानसिकता भी इसी तरह अपना कथित रचनात्मक खेल खेलती है। अल्पसंख्यकवाद से लेकर, राष्ट्रवाद, संस्कृति, राष्ट्रगीत, राष्ट्रगान, योग, असहिष्णुता, खाने की आजादी, गौरक्षक दल, तलाक, लव जिहाद  या  धर्म की आजादी जैसे मुद्दों का मतलब केवल इतना रह गया है जैसे कि कोई द्विअर्थी संवाद करे। आप कहें कुछ लेकिन उसका अभिप्राय मतलब कुछ और ही होता है। ऐसे में यह सवाल उठता है कि यह जहर आखिर आता कहॉ से है? उन नेताओं से जिन्हें जनता चुनती है? अथवा वे नेता जो जनता में यह भावना पैदा करने की हैसियत रखते हैं। दोनो ही बातें गलत हैं। कम से कम भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के शानदार इतिहास पर नजर डालने से यह साफ हो जाता है कि हमारे नेता बहुत उॅची काबिलियत के लोग थे जिन्हें जनता ने बहुत करीब से जनसंघर्षों की आग में तपते निखरते देखा। लेकिन राजनीति के अपने तकाजे हैं वे केवल सद्इच्छाओं से तय नहीं किये जा सकते हैं। आजादी के संघर्ष में हमारे पास सशस्त्र संगठन नहीं था जोकि इन अराजक, हिंसक, लुटेरों ,कातिल तत्वों पर नकेल कस सकता। निहत्थे अहिसंक लडाई का एक पक्ष तो ठीक था कि हम अंग्रेजांे के खिलाफ लोगों में नैतिक साहस पैदा करें वह काफी हद तक सफल भी रहा, लेकिन हमारे पास वैकल्पिक सुरक्षा नहीं थी जिन्ना इस बात को जानते थे , लिहाजा समाज में अराजकता पैदा हो गयी जाहिर ही है कि गॉधी इससे डर गये, कोई भी होता उसे डरना ही पडता ऐसे समय में  दूसरा कोई उपाय भी नहीं बचता है,  परिणामस्वरूप विभाजन हुआ और उन सभी सवालों पर हमेशा के लिए पर्दा पड गया जिसकी खातिर आजादी की इतनी कठिन जंग चली थी। कमोवेश आज फिर से वही हालात हैं बेरोजगारी चरम पर है, महंगाई से लेकर सामाजिक सुरक्षा, शिक्षा, स्वास्थ्य, पर्यावरण, जैसे तमाम मुद्दे पूरी भयावहता से मुॅह बाये खडे हैं लेकिन अब संस्कृति, धर्म, राष्ट्रवाद के नाम पर द्विअर्थी संवाद की भाषा माहौल में असरकारक होती दिखाई पड रही है। यह सब अनायास ही नहीं है। 

बुधवार, 5 अप्रैल 2017

विजय माल्या और पराजित किसान।

बच्चों को धर्मों के झगडों के बारे में तो कुछ पता नहीं होता है, लेकिन इन धर्मों का आधार रही कुछ कहानियां दिल की गहराई में उतर जाती है इन्हीं में से एक सेंटाक्लाज की कहानी भी है। किस तरह सेंटाक्लाज एक परिवार की दुखभरी दास्तान को चुपके से सुनते हैं और उतनी ही खामोशी से उनकी मदद करते हैं इसी तरह हमारे यहॉ भी कहा जाता है कि किसी को एक हाथ से मदद करो तो दूसरे हाथ को भी पता नहीं चलना चाहिए। लेकिन किसानों को मदद के नाम पर जितना प्रचार किया जाता है अक्सर वह अभियानों का रूप ले लेता है। फिलहाल उत्तर प्रदेश के किसान उसी जलालत से दो चार हो रहे हैं ऐसा लगता है कि जैसे किसानों ने कोई पैसे का गबन कर लिया हो या  उन्होनें भ्रष्टाचार किया हो जबकि किसानों की यह हालत सरकारी नीतियों के कारण हुई है, वे गुनहगार नहीं बल्कि पीडित है उन्हें इस पीडा का मुआवजा तो दूर, जीवित रहने के लिए भी जो मदद की जा रही है वह नाकाफी है और लगता है कि जैसे उन पर बडा एहसान किया जा रहा हीै। जबकि सरकारें माल्या और सुब्रत रॉय की भी मदद करती रही हैं यदि अदालत हस्तक्षेप ना करती तो ये दोनों महानुभाव कितना डकार गये पता भी नहीं चलता। कॉरपोरेट घरानों के अरबांे-खरबों रूपये यूॅ ही राईट ऑफ कर दिये जाते हैं। सरकार द्वारा इनको दी जाने वाली सब्सिडी, दूसरी सहूलियतें , खुशामदों और उठाये जाने वाले नाज-नखरों का तो कोई हिसाब ही नहीं। कहने का मतलब यदि वोटों की राजनीति ना हो तो कोई किसानों को पूछने वाला भी नहीं है। यह स्थिति ठीक नहीं है। किसानों को या किसी भी दूसरे पेशे को यदि अस्तित्व के संकट से गुजरना पड रहा है तो इसे किसानों की समस्या से अधिक व्यवस्था की समस्या माना जाना चाहिए और इसे चुनावी मुद्दे से परे अधिक गहराई से सुलझाये जाने की जरूरत है। दाता और भिखारी वाले सम्बन्ध ठीक नहीं हैं किसानों को अनुदान के तौर पर नहीं बल्कि उनके अधिकार के तौर पर समाज और सरकार को उनके साथ खडा होना चाहिए। चुनाव हर साल तो होते नहीं फिर क्या हमें अपनी समस्या सुनाने के लिए पॉच साल का इंतजार करना होगा! यह महज चुनावी वादा पूरा करने का सवाल नहीं है बल्कि ऐसा बुनियादी सवाल है जो इस देश की जडों से जुडा है और केवल यू0पी0 के ही किसानों का सवाल नहीं है बल्कि पूरे देश के किसानों का सवाल है।



सोमवार, 3 अप्रैल 2017

रोमियो, नुक्कड पर कम और उॅचे पदों पर ज्यादा है।

पहली नजर में यू0पी0 के मुख्यमंत्री आदित्यनाथ की कार्यशैली से असहमति दिखाई नहीं दे रही है, कम से कम विरोध तो दिखाई नहीं दे रहा है। हांलाकी उनका यह तरीका कारगर हो पायेगा ऐसा बिल्कुल नहीं लग रहा है। सडकों पर छेडखानी करने से रोकने पर किसी को कैसे एतराज हो सकता है? लेकिन क्या यह काम केवल पुलिस का ही है कि वह छेडखानी रोके? सडकांे की जाने वाली छेडखानी को इस तरह रोकने का दावा करने वाले लोगों को कास्ंिटग काउच से लेकर उस पूरी व्यवस्था पर जवाब देना होगा जहॉ कांग्रेस का समय तत्कालीन एक केन्द्रीय मंत्री महिला जज से प्रोन्नति के बदले आपत्तिजनक व्यवहार कर रहा था और यह उस महिला की रजामंदी से हो रहा था। राजनीति में यदि आज महिलाओं का प्रतिशत बहुत असंतोषजनक है तो इसके पीछे यही मनोवृत्ति काम करती है। जमीनी धरातल पर उन्हीं महिलाओं को आगे आने दिया जाता है जो या तो प्रभावशाली हों या फिर समझौतापरस्त हों, कितने बडे स्तर पर इस तरह के रोमियो राजनीति और दूसरे उॅचे पदों पर है इसका कोई अनुमान ही नहीं लगाया जा सकता है। लगभग हर महिला को किसी न किसी मान्यवर जिसे सभ्य भाषा में गॉड फादर भी कहा जाता है के सहारे की जरूरत होती ही है। आप पार्टी के नेताओं ने पंजाब चुनावों में कैसी अराजकता की, इसे सारी दुनियां जानती है, इसी पार्टी का एक कथित साहित्यकार, कवि और प्रवक्ता की हैसियत रखने वाला व्यक्ति किस तरह महिला कार्यकर्ता को प्रशिक्षण दे रहा था इसे सारी दुनियां ने देखा  इस लम्पट ने एक महिला कवियित्री को मंच से उस समय सरेआम  कहा कि एक महीना तो जेठ का भी होता है जब कवियित्री ने इसे टोकते हुए कहा कि आप मेरे जेठ समान हैं। ऐसे प्रतिष्ठित लम्पटों के क्या उपचार है योगी जी के पास?   इसलिए एन्टी रोमियो अभियान की की जरूरत से तो इंकार नहीं किया जा सकता है लेकिन इस तरह का अधकचरा विचार लेकर आप कितना समाज सुधार कर पायेगें यह जाहिर है।  आपको पता ही नहीं है कि आप करना क्या चाहते हैं। आपको भक्ति का पता नहीं है लेकिन मन्दिर के नाम पर वोट कैसे बटोरे जा सकते हैं इस आर्ट में आप माहिर हैं।  आपको यह पता नहीं कि हिंसा क्या है? या गाय का हमारे जीवन में क्या महत्व है? हमारा समाज आदिम, क्रूर और वहशी होता जा रहा है इसके सैकडों उदाहरण हैं हमें बुनियाद से ही शुरूआत करनी होगी। जानवर काटे जांए यह गलत है। लेकिन आदमी ना काटे जा सके हमें पहले यह सुनिश्चित करना होगा। आप किसी भी तरह समाज का धुव्रीकरण करने में सफल हो जाते है। यह आपकी कुशलता है लेकिन सफलता पाने के लिए बहुत कुछ करने की जरूरत है। इतने भर से काम नहीं चलेगा!




रविवार, 2 अप्रैल 2017

भक्ति सूत्र की ओट में मनोविकार।

भक्त का मन वाकई भावुक और निर्मल होता है, उसे दुनियांदारी से कोई मतलब नहीं उसका सीधा सम्बन्ध सम्बन्ध परमेश्वर से होता है। इसके विपरीत राजनीतिक भक्त बहुत चालाक होता है वह अपने परेमश्वर का इस्तेमाल अपनी जरूरतें को पूरा करने के लिए करता है जरूरत पडे तो परेमश्वर भी बदल लेता है हकीकत में वह अपना परेमश्वर खुद होता है जैसी उसकी जरूरत बाजार से वैसा परमेश्वर खरीद लाता है। चुनाव से पहले बहुत से टिकट के उम्मीदवारों ने अपन परमेश्वर बदल कर मोदी को अपना लिया और फिर से सत्ता में प्रतिष्ठित हो गये। अन्ना आंदोलन के बाद से सोशल मिडिया में भक्तों की बाढ सी आ गयी है। पहले इन्होनें केजरीवाल की भक्ति की, फिर मोदी की भक्ति का दौर चला जो गिरावट के बावजूद अभी भी फैशन में बना हुआ है अब यू0पी में योगी भक्ति का भी चलन दिखाई पडने लगा है। सवाल उठता है कि जो लोग केजरीवाल, मोदी, योगी या प्रियंका की भक्ति में लीन दिखाई पड रहे हैं इनका मकसद क्या है। क्या ये पिछलग्गू है या वाकई इन्हें  अपने इन कथित परमेश्वरों पर यकीन है कि ये देश और समाज का भला कर सकते हैं असल में चढते सूरज को सलाम करने वाली प्रवृत्ति के कारण ही इस तरह का रूझान दिखाई पडता है काफी हद तक मिडिया मैनेजमेंट और पेड सोशल मिडिया भी इसका कारण है लेकिन आदमी की जो मूल वृत्ति है उसे समझना जरूरी है आदमी चाहता है कि दूसरे मेरे कहे अनुसार चलें। ऐसा करने के लिए उसके पास कोई मंच नही होता है इसलिए वह किसी का पिछलग्गू बन जाता है चाहे वह आशाराम  और रामदेव ही क्यों ना हो। इससे एक प्रकार की प्रतिष्ठा उसे मिल जाती है और वह लोगों को समझाने की हैसियत पा जाता है। आजकल हर कोई दूसरे को समझाने में लगा है और इस तरह वह खुद भी आश्वस्त होना चाहता है कि मैं सही ही हॅू। अन्यथा मुझे कोई मुक्तिदाता मिल जाए तो फिर मैं दूसरो की फिक्र क्यों करूगा, पहले मैं मुक्त हो जाउॅगा लोग इस परिवर्तन को देखेगें और चाहें तो वे भी मुक्त हो जाए ना चाहें तो उनकी मर्जी लेकिन दूसरा मेरे कहे अनुसार चले यह जिद जिस तरह हिंसक होती जा रही है लगता नहीं कि यह मात्र भक्तिभाव है यह विकृत और हिंसक मनोविकार की तरह अधिक दिखाई पडता है।




शनिवार, 1 अप्रैल 2017

सैक्युलर और साम्प्रदायिक एक ही थैली के चट्टे-बट्टे हैं।

इतिहास में जब भी मोदी और योगी के इस चमत्कारिक दौर का जिक्र होगा तब अकबरूद्दीन ओबैशी के उस नफरत भरे भाषण पर भी इतिहासकार गौर फरमायेगें जिसमें उन्होेंने  हिन्दुओं के कत्लेआम की धमकी दी थी। जब लालकृष्ण आडवानी रथ यात्रा पर निकले थे तब लालू ने जिस तरह उनका रथ रोका इससे भी लोग आकलन करेगंे कि जो रथ रोका गया, वह वाकई रोका गया था या उसे  मंजिल तक पहुॅचाने की यह कोई तरकीब थी। कोई रथ यदि अपनी ही रफ्तार से चलता तब भी  उसे मंजिल तक का सफर तय करने में वक्त लगता लेकिन यहॉ तो लालू जैसों ने रथ में जैसे पंख ही लगा दिये! चाहे उनकी मंशा कुछ भी रही हो लेकिन परिणाम यही निकला कि रथ अपनी मंजिक तक पहुॅच गया है और इसमें  उन लोगों का योगदान स्पष्ट दिखता है जो कथित तौर पर रथ रोकने का दावा करते हुए दिख रहे थे।  आज मोदी के रूप में  इन ताकतों का अश्वमेध यज्ञ पूरा हो चुका है। संक्षेप में साम्प्रदायिक ताकतें उतनी मजबूत थी नहीं और ना ही हो सकती थी जितनी मजबूती से सैक्युलर इन्हें लाने पर आमादा थे। कहने का अभिप्राय यह है कि साम्प्रदायिक ताकतों के पास बेचने के लिए एक मन्दिर का सपना था, एक राष्ट्र का सपना है जिसमें वे जर्मनों की तरह श्रेष्ठ नस्ल अथवा धर्म वालों की तरह रहेगें और बाकी उस तरह रहेगें जैसे कि सैकडों साल पहले भटके हुए लोग गलत धर्म में चले गये थे वे या तो अब इनकी शरणागति हों या फिर कदम-कदम पर हिकारत और जलालत भरी जिन्दगी जिंए यह नफरत की राजनीति का नया तरीका है जिसे वर्षों की मेहनत से खोजा गया।  कहने को कुछ भी कहा जा सकता है राष्ट्र, संस्कृति, धर्म और देशभक्ति की बडी-बडी बातें की जा सकती हैं लेकिन राष्ट्र, संस्कृति, धर्म और देशभक्ति की कोई भी परिभाषा ये नहीं देते हैं। दूसरी ओर वे लोग हैं जिनके पास कोई सपना भी नहीं है वे केवल इनके विरोध पर जीने वाले पैरासाईट हैं जिन्हें कथित सैक्युलर कहा जा सकता है। इस देश का अपना एक सपना है जिसमें बेरोजगारी ना हो, किसी प्रकार का उत्पीडन ना हो, अभाव और तिरक्कार ना हा, सबको शिक्षा उपलब्ध हो, समाज रोगमुक्त हो लेकिन अब कोई यह बात नहीं करता ना तो कथित धार्मिक और ना ही कथित सैक्युलर। ये अन्योन्याश्रित हैं, एक दूसरे के एहसानमंद है हैं कि कैसे मिलजुल कर लोगों को बेवकूफ बनाये ही चले जा रहे हैं।



शुक्रवार, 31 मार्च 2017

खाज को खुजलाने की राजनीति आखिर लहूलुहान ही करती है।

चाहे कोई सहमत हो या ना हो मोदी परिघटना और उसके बाद केजरीवाल फैक्टर का एक सकारात्मक पक्ष यह है कि अब भारतीय चुनावी राजनीति में गठबंधन की मजबूरी को विदा कर दिया है। हालिया पॉच राज्यों के विधानसभा चुनावों में भी गठबन्धन जिस तरह पराजित हुआ है उसने उत्तर प्रदेश और उत्तराखण्ड में भाजपा और पंजाब में कांग्रेस को छप्पर फाड समर्थन दिया है। किसी भी पार्टी के पास अब ऐसा कोई बहाना नहीं रह गया है कि उन्हें विपरीत विचारधारा से नीतियों सम्बन्धी कोई समझौता करना पड रहा हो। हर किसी के पास स्पष्ट बहुमत है। चाहे गोवा और मणिपुर में गठबंधन की सरकार ही हो वहॉ डील इतनी गहरी हुई कि इनके लिए अब उस तरह का कोई बहाना बनाना  सम्भव नहीं है। जनता की ओर से चाहे इन्हें स्पष्ट बहुमत ना भी मिला हो लेकिन भीतरखाने गतिविधियों के बाद खण्डित जनादेश को भी स्पष्ट बहुमत में बदल दिया गया है। अब सभी विचारधारायें अपने ढंग से काम करने को स्वतंत्र है। यू0पी0 में कथित तौर पर काम शुरू हो भी चुका है, हांलाकी आदित्यनाथ उस तरह की मोहलत नहीं मांग रहे हैं जैसे कि मोदी ने हनीमून की मोहलत मांगी थी। मोदी की राजनीति का कैनवास काफी बडा था, कभी उन्होनें अपने शपथ ग्रहण समारोह को ही चक्रवर्ती सम्राट के राज्याभिषेक की तरह आयोजित करवा कर सुर्खियां बटोरी तो उसके बाद अचानक पाकिस्तान हो आये, फिर विश्व भ्रमण पर निकल गये, कभी सर्जिकल स्ट्राईक और कभी नोटबंदी करते-करते इनके कार्यकाल का दो तिहाई समय बीतने को है। उपलब्धि के नाम पर यू0पी0 चुनाव परिणाम के अलावा और कुछ नहीं है। बहुत से राज्यों में जीते हैं तो बहुत से राज्यों में अपमानजनक तरीके से पराजित भी हुए है। बाकी जगह पर तोड-फोड और खरीद फरोख्त का फार्मूला पूरी बेशर्मी से लागू किया गया है। यू0पी0 की शुरूआत अपने आप में काफी कुछ कह जाती है। राममन्दिर, तीन तलाक, बूचडखाने और दूसरे तमाम मुद्दे जिस तरह उठाये जा रहे हैं उससे साबित होता है कि जिन वायदों पर ये आये थे उनसे अब ये मुॅह मोड चुके हैं। अच्छे दिन से लेकर कालाधन तक हर जुमला अब इनके लिए दुःस्वप्न बनता जा रहा है। हर कोई अच्छी तरह समझता है कि इनकी नीयत खराब है। इन्होनें मन्दिर विवाद खडा किया तो उसके पीछे मकसद मन्दिर बनाना नहीं था बल्कि विवाद पैदा करना था। इसी तरह तीन तलाक को लेकर जो चिंता इनमें दिखाई देती है वह भी चिढाने से ज्यादा कुछ नहीं है। क्या हिन्दू समाज में वैवाहिक विघटन नहीं होते हैं? क्या हिन्दू समाज की महिलाओं की समस्यायें हल की जा चुकी हैं महिला का मतलब युवा महिलायें ही कतई नहीं होती हैं इन्हें लव जिहाद के नाम पर युवा लडकियों की चिंता है तलाक के नाम पर युवा महिलाओं की चिंता है आखिर माजरा क्या है? ये युवा महिलाओं को लेकर काफी संवेदनशील है।  क्या बच्चियों की शिक्षा के बारे में  इन्हें कोई सरोकार नहीं है अथवा उम्रदराज महिलाओं के बारे में इनके पास कोई कार्यक्रम क्यों नहीं है। महिलाओं की चिंता केवल विवाह तक ही सिमित नहीं की जानी चाहिए, यह काफी गम्भीर मुद्दा है तीन तलाक से अधिक चिंता इस बात की की जानी चाहिए कि मन्दिर से लेकर तलाक बूचडखाने से लेकर लवजिहाद और समान नागरिक कानून तक कोई भी बात बिना राजनीति के क्यों नही की जाती है?


सोमवार, 27 मार्च 2017

योगी से पिछड रहे हैं मोदी।

       एक ही राजनीति में भी व्यक्तित्वों का अपना असर होता है, भाजपा के विस्तार में अटल बिहारी वाजपेई से कहीं ज्यादा योगदान के बावजूद लोगों ने लालकृष्ण आडवानी को पंसद नहीं किया तो इसके पीछे कुछ निश्चित कारण रहे थे। उत्तरप्रदेश में आदित्यनाथ योगी के मुख्यमंत्री बनने के बाद से फिर यही चर्चा जोर पकडने लगी है कि क्याा भाजपा की राजनीति के लिए मोदी का विकल्प योगी के रूप में आ गया है? दबे स्वर में ही सही यह चर्चा जोर पकडने लगी है कि 2024 के चुनावों में मोदी की जगह योगी कहीं बेहतर उम्मीदवार हो सकते हैं। सवाल पूछा जाने लगा है कि मोदी का आकर्षण इतना सतही क्यों साबित हो गया कि एक प्रदेश के मुख्यमंत्री के 10 दिन के कार्यकाल में ही  वह कुम्हलाने सा लगा है। कहा जा रहा है कि योगी के व्यक्तित्व में चाहे समझदारी ना हो लेकिन एक प्रकार की ईमानदारी है, वे जब मुसलमानों के प्रति कोई बात करते हैं तो वे उस तरह की नफरत से नहीं भरते जैसे कि मोदी ने टोपी लौटाते हुए नफरत जाहिर की थी, उनके चेहरे का वह भाव किसी को लुभा भी सकता है लेकिन एक नेता के तौर पर उसे अभद्रता ही माना गया। योगी के व्यक्तित्व में भगवा कपडेे पहनने के बाद भी एक प्रकार का आत्मविश्वास दिखता है जो किसी को दस लाख के सूट पहनने के बाद भी हासिल नहीं हो पाता है। योगी के सर्टिफिकेट फर्जी नहीं हैं ना ही उन्होने पढे लिखे होने का दावा किया। वे नाटकबाज भी नहीं हैं चाहे गलत तरीके से ही सोचते और बोलते हैं लेकिन उनके यहॉ सभी समुदाय के लोग पूरे विश्वास से हैं उन्हें समाज से कटा हुआ साबित नहीं किया जा सकता है। कुल मिलाकर यदि योगी के आने से ही मोदी की चमक फीकी पडेगी तो कोई आश्चर्य नहीं होना चाहिए। क्योंकि एक सी राजनीति में होने के बाद भी योगी के सामने मोदी कमजोर ही साबित होगें।  इससे ही पता चलता है कि यदि विपक्ष खुद ही खस्ताहाल ना हुआ होता तो मोदी का तिलिस्म कब का बिखर चुका होता। यह जादू मोदी का कम और विकल्पहीनता का ज्यादा है।